’मेरे प्रिय’ प्रेम की सूक्ष्म अनुभूतियों का उद्दाम: मेरी पाठकीय टिप्पणी
’एक कविता कहीं
गुम हो गयी!
संभाल न सके तुम मेरे प्रिय!’
के उलाहने से शुरु मेरी तलाश को समर्पित युवा कवयित्री इरा टाक की कृति ’मेरे प्रिय’ की प्रेम कविताएं मैं से तुम तक पहुंचने के लिए प्रेममयी यात्रा पर मन की अतल गहराइयों से निकले ह्रदय की घनीभूत संवेदनाओं से निकली प्रेम की काव्य अनुभूतियां हैं। जब कूंची जब कलम होती है तब जो रंग शब्दों में उभरते हैं, सहज ही उसकी कल्पना की जा सकती है.. ’मेरे प्रिय’ की कविताओं के बिम्ब साकार रूप में पाठकों के मन के कैनवास पर अपना आकार गढने लगते हैं.. छोटे-छोटे बिम्बों की ये काव्यानुभूतियां पाठक-मन को भी प्रेम से ओतप्रोत करता प्रतीत होता है... इन में प्रेम में बहुत गहरे डूबे मन की अपने प्रिय को सम्बोधित आसक्तियों के इंद्रधनुषी रंगों भरी बेचैनियां, उलाहने, रूठना- मनाना और असुरक्षा के भाव....सब कुछ है।
’सच में प्रेम है/ या एक प्रयोग प्रेम को जानने का’ प्रेयसी का प्रेम को जानने- समझने का यह मुहावरा कितना कठोर व मौलिक है और दूसरे ही क्षण अपने कठोर प्रयोग के तराजू की तौलनी से निकल बहुत ही सहज मासूमियत से ’मैं पहाड़ी नदी सी चंचल/ और तुम गहरी झील से शांत’ हो ’जब याद आते हो तुम/ अक्सर खाली कार में/ तुम्हारी सीट पर बैठ जाती हूं’ प्रेमी के आकंठ प्रेम में डूब ’ तुम में जो कमी है/ मैं पूरा करती हूं’ जैसा समर्पण करने में भी संकोच नहीं करती। और जब प्रेमी की उपेक्षा से दो-चार होती है तो वही आकुल- व्याकुल मन ’इससे तो अच्छा तुम मिलते ही नहीं/ कम से कम/ किसी और से तो/ प्रेम कर पाती’ जैसे उलाहनों के बावूजद प्रेम से सराबोर ’बेवजह ही वजह ढूंढती हूं/ तुम से मिलने की’ के भाव में ’एक दुनिया बसा ली है मैंने/और उसे रोज़ सजाती हूं’ में विचरती रहती है।
कुल मिलाकर कहूं तो युवा कवयित्री इरा टाक के पहले संग्रह ’अनछुआ ख्वाब’ की ही भांति बोधि प्रकाशन, जयपुर द्वारा प्रस्तुत यह दूसरा काव्य संग्रह ’मेरे प्रिय’ एक ही शीर्षक सीरीज की ये छोटी- छोटी काव्यानुभूतियां जीवन में गहन प्रेम की परतें खोलता प्रेम का आर्तनादी प्रेम-गान लगता है। ’मेरे प्रिय’ की भूमिका में आलोचक- संपादक प्रभात रंजन भी कहते हैं ’संग्रह कविताओं से गुजरते हुए पहला इंप्रेशन यही उभरता है कि ये कविताएं अलग मिजाज़ की हैं, अलग रंगो- बू की।’ ’इरा टाक की कविताएं जीवन के सबसे निजी, सबसे एकांतिक अनुभवों के आठ की तरह है।’
इरा कहती है,’मेरे लिए रंगों को शब्दों से और शब्दों को रंगो से अलग करना मुश्किल है..ज़िंदगी को अपने तरीके से खूबसूरत बनाने में ये दोनों मेरी मदद करते हैं... कभी सोच कर नहीं लिखा.. जो मन में उतरा... उसे कागज़ पर उतार लिया।’
’मेरे प्रिय’ की कवितांए साक्षी है इस बात की कि जो उनके मन में उतरा उसे उन्होंने कागज़ पर उतार दिया है..
इसकी और गहरे से पड़ताल की है ’मेरे प्रिय’ की भूमिका में हमारे समय के युवा आलोचक- संपादक प्रभात रंजन जी ने
मेरे प्रिय - जीवन के बीहड. से गुजरना : प्रभात रंजन
कहते हैं रंगों-रेखाओं के साथ अपने आत्म को अभिव्यक्त करना अभिव्यक्ति का सबसे पुराना माध्यम है। जब इंसान बोलना भी नहीं जानता था तब उसने गुफ़ाओं की दीवारों पर आदिम भावनाओं को रूपाकार दिया। चित्र बनाना अभिव्यक्ति का सबसे आदिम रूप है। बाद में जब इंसान ने शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त करना सीखा तो सबसे पहले उसने काव्य की रचना की।
कविता अभिव्यक्ति का आदिम रूप है। कवयित्री इरा टाक कला- साहित्य के इन दोनों माध्यमों में सिध्दस्त हैं। एक तरफ़ वह चित्रों के माध्यम से मन की कल्पनाओं को साकार करती है, दूसरी ओर शब्दों में मन की भावनाओं को अभिव्यक्त करती है। ’मेरे प्रिय’ उनकी कविताओं का दूसरा संग्रह है। संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए पहला इंप्रेशन यही उभरता है कि ये कविताएं अलग मिजाज़ की हैं, अलग रंगों-बू की। लेकिन इनका बूदो-बास क्या है? सवाल उठता है कि कविता का बूदो-बास क्या है? मुझे प्रसिध्द फ़ेंच कवि पॉल वेरी की पंक्तियां याद आती है- ’न किसी ने देखा और न ही जाना/क्या कहें इसे संभावना या प्रतिभा/ बस एक झोंका आया..’ वास्तव में कविता यही होती है।
इरा टाक की कविताओं को पढते हुए लगता है जैसे कवयित्री शब्दों के माध्यम से जीवन के उस सत्य को अभिव्यक्त करना चाहती है जो कल्पना के पन्नों पर अनुभव की कलम से लिखा गया है- ’कहीं गुम हो गई/ संभाल न सके/ तुम मेरे प्रिय’। इंसान जो भी करता है अपने- अपने ’आप’ की तलाश में करता है। मुझे स्पैनिश भाषा के महान लेखक बोरहेस की वह कहानी याद आती है जिसमें शेक्सपियर जब मृत्यु के बाद दूसरी दुनिया में जाते हैं तो वहां उनसे वहां का स्वामी पूछता है कि तुम आखिर कौन हो- मैकबैथ, सीजर, हेमलेट जैसे असंख्य चरित्रों में आखिर तुम हो कौन? जवाब में शेक्सपियर कहते हैं कि अगर मुझे यह पता ही होता कि मैं कौन हूं तो मैं इतने चरित्र रचता ही क्यों? मैंने इतने चरित्र इसलिए रचे क्योंकि मैं यह जानना चाहता था कि मैं कौन हूं?
इरा टाक की कविताएं असल में जीवन के सबसे निजी, सबसे ऎकांतिक अनुभवों के आठ की तलाश की तरह है। जीवन जीने का क्या अर्थ होता है, सबसे गहरे, सबसे निजी समझे जानेवाले सम्बन्धों का क्या अर्थ होता है-’मैं पहाडी नदी सी चंचल/ तुम गहरी झील से शांत/ मैं हवाओं की तरह उन्मुक्त/ तुम बादलों से भरे हुए...।’ शब्द जैसे जीवन के रूपाकार हैं, जो अपने अमूर्तन में बिखर जाते हैं। मूर्तता असल में आदर्श होतें हैं जिनको पाना, अपनी अभिव्यक्ति में वहां तक पहुंच पाना ही हमारी समस्त कला का उद्देश्य होता है लेकिन समस्त कलाएं अपने चरम रूप में अर्मूत होती हैं क्योंकि मूर्त आदर्शों को पाया नहीं जा सकता- ’तुम ही तुम/ कहीं खुद को भूल न जाऊं/ मेरे प्रिय..।’
इरा टाक की कविताओं में ’मैं’ से ’तुम’ तक की यात्रा है। मैं से तुम तक की इस यात्रा के बीच निजी और सार्वजनिक का वह द्वंद है जो कविता का सबसे बडा. निकष है। इसमें कोई शक नहीं कि इरा टाक की कविताओं में मैं से तुम तक की यात्रा दरम्यान रचे गए छोटे- छोटे पडाव, जो उनकी कविता को एक विशिष्ट मुहावरा देते हैं। उनकी छोटी- छोटी कविताएं जैसे जीवन के नए- नए अनुभवों से साक्षात्कार हैं। इसमें शक नहीं कि इरा टाक की कविताओं के अनुभव का आलोक हमें अपने साथ लेकर चलता है, उनकी कविताओं से गुजरना जीवन के बीहड. से गुजरना है।
प्रभात रंजन