मार्च की अलसुबह भोर की फ़ाल्गुनी बयार में ’जुलाई की एक रात’ पढते हुए
पाठकीय टीप्पणी व सरिता शर्मा द्वारा की गयी समीक्षा पाठकनामा के पाठकों के लिए....
’जुलाई की एक रात’ पुस्तक मेले में खरीदे पुस्तकों को पढने के क्रम में बीकानेर से नोहर जाते मैंने जो किताब कार्टून से निकाली युवा कथाकार- पत्रकार दुष्यंत की पेइंगुन- इंडिया से सद्य प्रकाशित चर्चित कहानी संग्रह ’जुलाई की एक रात’ थी, वाह! क्या बात है... मार्च की इस अल सुबह बासंती भोर में जुलाई की एक रात । जैसे जैसे कहानियों में उतरता गया.. कहानियों की गरमाहट से छ: मार्च की ठण्ड हवा होती गयी। दुष्यंत ने इन कहानियों को अपने अलग ही विशिष्ट अंदाज भाषा- शैली- शिल्प में आम साधारण सी लगनेवाली अनुभूतियों से कथा पात्रों और उनके चरित्रों को असाधारण रोचक तरीके से परंतु डूब कर प्रस्तुत करते दिखायी देते हैं कथा- शैली से कहीं- कहीं ’एक पति- पत्नि के नोट्स’ वाले महेंद्र भल्ला का स्मरण हो आता है। ’जुलाई की एक रात’ में मुझे यह कथाकार का सबसे बड़ा कौशल लगा..अधिकतर कहानियों की कथा- वस्तुंए और उनके नायकों को देखें तो ये कहानिंया बीस से चालीस साल के नायकों के जीवन में नौकरियों के लगने- छूटने की उठापटक और इस अंतराल के अनुभवों, द्वंदों, हालातों और उनसे मुठभेड़ - निपटने की छटपटाहट को व्यक्त करती कहानियां हैं जिन में कहीं वह अधिकतर असफ़ल रहता है और समर्पण कर देता है। इस दौरान कथाकार बीच- बीच में अपने समय की सामाजिक, राजनैतिक उथल- पुथल को भी रेखांकित करता जाता है और यह रेखांकन कहीं- कहीं मुझे कहानी के पाठ को बाधित करता भी लगा।
इस संकलन की कहानियों में दुष्यंत द्वारा अपने समय की बारीकी से पड़ताल की गई है। इन कहानियों के पात्र बहुत ही उत्तर आधुनिक है, रिश्तों सम्बन्धों के बारे में उनकी धारणाएं एकदम स्पष्ट व व्यावहारिक है और वे इन्हें ढोते रहने को तैयार नहीं है। आशंकाओं-आवश्यकताओं और अपने हितों के प्रति सजग अधिकतर चरित्र बहुत ही सहज भाव से बड़े- बड़े निर्णय लेने में तनिक भी नहीं हिचकते चाहे वह ’उल्टी वाकी धार’ की नायिका ’श्वेता’ हो जो नायक की इच्छा, स्वीकार करने और खबर सुनकर प्रसन्न होने के बावजूद विवाह पूर्व सम्बन्धों से पेट में पल रहे बच्चे को न केवल सिर्फ़ इस डर से कि समाज क्या कहेगा, जन्म देने को तैयार नहीं है बल्कि इसी बिना पर नायक से विवाह करने से भी इंकार कर देती है, कुछ ऎसी ही मन: स्थितियां ’प्रेम की उप कथा’ की नायिका शोभिता व ’यार तुम भी बस’ के बेनाम नायक- नायिका और ’....एक लड़की को देखा तो ऎसा लगा’ की लड़की शालिनी व ’बीच सड़क’ की लड़की, प्रेम का देह गीत’ की नेहाके नायक से चुटिले संवादों में है। और कुछ ऎसे ही सच ’लाइफ़ इज ग्रे: कुछ अधूरी प्रेम कहानियां’ की चौदह लघु संवादी कथाओं और ’मादा गंध’ कहानी में हैं।
संग्रह में प्रेम के इन उत्तरोत्तर आधुनिक कैनवासों से बाहर विषम जीवन के कटु यथार्थ की विद्रूपताओं का आइना दिखाती ’हीरीयो उर्फ़ हीरा है सदा के लिए, डायरी: जुलाई की एक रात, छुट्टन मियां फ़ूलवाले, शाम, नॉस्टेलेजिया ..... ये भी समय है, मुस्कराती हुयी लड़की जैसी लीक से हटकर कहानियां भी है।
इसके ठीक उलट ’ताला, चाभी, दरवाज़ा और संदूक’ की नंदिता, दोस्त, दादी टमकौरी जैसे चरित्र भी है जो अपने भीतर अपने- अपने दरवा्ज़ों, तालों-चाभियों और संदूकों में गूढ रहस्य छिपाए हैं। ओम थानवी कहते हैं दुष्यंत की कहानियों की कथा-वस्तु आधुनिक जीवन के तनावों, अंतर्विरोधों और मानसिक- वैचारिक टकराव को खंगालती हैं।
उदय प्रकाश कहते हैं कि दुष्यंत ’जातीय, सामुदायिक और यौनिक टकराहटों को रोचकता और वैचारिकता के साथ पेश करते हैं। वे जोखिम भरी निडरता के साथ समकालीन कथा लेखन के सामने अनुभव, स्थापत्य, भाषा और शैली की नई खिड़कियां खोलती हैं। ये कहानियां उत्तर आधुनिक वास्तविकताओं की किस्सागोई है। ये किस्से तमाम तरह की पिछली मासूमियतों की मौत की खबर देती कहानियां है।’ और इसकी पुष्टि वरिष्ठ कथाकार सूरज प्रकाश के ’गज़ब के किस्सागो है।’ कथन से भी होती है।
जुलाई की एक रात यानि बेचैनी के दिन और रात -सरिता शर्मा
पत्रकार, कविता और कहानीकार दुष्यंत के कहानी संग्रह ‘जुलाई की एक रात’ में 15 कहानियां संकलित हैं. इन कहानियों का दायरा कस्बाई गली-मोहल्लों से लेकर शॉपिंग मॉल्स तक फैला है. इनमें तेजी से बदलते वक्त की, परेशान और हताश करने वाली सच्चाई बयान की गयी हैं. ये कहानियां गिरते मानवीय मूल्यों और खोखले होते रिश्तों पर तीखी टिप्पणियां हैं. कथाकार उदयप्रकाश ने प्राक्कथन में लिखा है कि दुष्यंत की कहानियां जोखिम भरी निडरता के साथ हिंदी के समकालीन कथा लेखन के सामने अनुभव, स्थापत्य, भाषा और शैली की नयी खिडकियां खोलती हैं. ये कहानियां उत्तर आधुनिक वास्तविकताओं की किस्सागोई है.
हाल ही में आई फिल्म ‘शुद्ध देशी रोमांस’ में बिना विवाह किये सहजीवन के समर्थक युवा जोड़े को दर्शकों ने बहुत पसंद किया था हालांकि यह स्थिति हमारी स्थापित मान्यताओं के विपरीत है. दुष्यंत आदर्शीकृत स्थितियों का गुणगान करने में विशवास नहीं रखते अपितु अपने समय और जीवन को सही सही देखना-समझना ही उनका रचनात्मक लक्ष्य है. अधिकांश कहानियां एकालाप में चलती हैं. प्रेम के रूमानी, दैहिक और बदलते स्वरूप पर अनेक कहानियों में विचार किया गया है. इन कहानियों में स्त्री विमर्श का यथार्थ और सीमा कुछ हद तक देखे जा सकते हैं. 'प्रेम का देह्गीत' में यौनिकता और प्रेम पर कई सवाल उठाये गये हैं और प्रचलित विमर्शों की ओर संकेत भी किया गया है.’सोचता हूँ शायद पूरी दुनिया के पुरुष ऐसे होते हैं या कि सिर्फ तथाकथित नारीवादियों की स्थिति है जो सम्पूर्ण विश्व की आधी आबादी के शुभचिंतक होने का दंभ भरते हैं, उनके मन की सुनने का ढकोसला करते हैं, और मानते हैं नारी उनके लिए देह से कहीं ज्यादा है, कहीं ऊपर है..क्योंकि मैं खुद को नारीवादी मानता कहता आया रहा हूँ, तो लिहाजा या तो मैं छद्म नारीवादी हूँ या सारे नारीवादी मुझ जैसे होते हैं.’’ ‘शाम, नोस्टाल्जिया और मोनालिसा की हंसी’ में दो बार विवाह सम्बन्ध टूट जाने की पड़ताल करता हुआ एकाकी नायक है.प्रेम सपनों जैसा होता है.’मगर कुछ सपनों की उम्र नहीं होती.’ मन के अन्दर उठते कोलाहल को नए बिम्ब के माध्यम से व्यक्त किया गया है. ‘लगता है कि सड़क बेहद वीरान है, शहर बेहद चुप. दुनिया भी, और दुनिया का सारा शोर मेरे लिविंग रूम में कॉम्प्रेस होकर जिप फाइल बनकर आ गया है.’
उनकी तीन कहानियों में गांव की पृष्ठभूमि है ‘हीरियो उर्फ़ हीरा है सदा के लिए’, में हीरे की कहानी किस्सागोई की शैली में कही गयी है. रेगिस्तान में पला बढा हीरा पंजाब में जाकर खालिस्तान के लिए लड़ने वाले लोगों में मिल गया. उसके बाद वह वजूद की तलाश में खेत में काम करने लगा. वह रॉबिनहुड की तरह रहता और बीमार गायों की सेवा किया करता था. दबंग व्यक्तित्व वाले हीरे के अँधेरे और उजले पक्षों को उजागर करने वाली कहानी का अंत खुला है और बहुत कुछ पाठकों की कल्पना पर छोड़ दिया गया है. - ‘उसे खजाना मिला या नहीं- खजाने के लिए गया या नहीं, कोई नहीं जानता है. ‘छुट्टन मियां फूल वाले’ में फूल वाले छुट्टन मियां की कहानी है जो पूरे मोहल्ले की हलचलों से वाकिफ रहते थे. देश के विभाजन के वक्त उन्होंने भारत में रहना चुना था. हिन्दू मुस्लिम दंगों के दौरान छुट्टन मियां की बेटी नर्गिस के साथ कुछ दंगाइयों ने बलात्कार किया जिसके चलते नर्गिस ने आत्महत्या कर ली. उन्हें इस बात का इतना आघात लगा कि वे पागल हो गाये. मगर धीरे -धीरे वह समझ जाते हैं कि ऐसे हादसे हर कौम की लड़कियों के साथ होते रहते हैं. ‘मादा गंध’ कहानी में मास्टरजी की लड़की के इर्द गिर्द फेंटेसी बुनी गयी है.
'जुलाई की एक रात' कहानी पाठकों को जुलाई की रातों की ही तरह बेचैन कर देती है. वह लेखकीय डिस्कलेमर के साथ शुरू होती है जो उसे व्यक्ति विशेष की नहीं, अपितु हर किसी की कहानी बना देता है ‘यह एक सच्ची कहानी है, इस कहानी के सभी पात्र और घटनाएं वास्तविक हैं... और इसका संबंध दुनिया के किसी भी इलाके के, किसी भी व्यक्ति से हो सकता है. यह मात्र संयोग नहीं हो सकता और संयोग भी क्या, यह तो प्रकटतया दुर्योग है. अस्तु, लेखक की यह आकांक्षा और शुभकामना है कि ये कथा अब सिर्फ कथा ही रहे, किसी के जीवन में घटित ना हो.’ इसमें कथावाचक मध्यम वर्ग के युवाओं का प्रतिनिधित्व करता है-‘मैं मासूम नहीं... मनहूस भी नहीं... इन सारी इंसानी कमजोरियों से युक्त एक साधारण-सा युवा हूं... कुछ कुंठा... कुछ गुस्सा... बहुत-सा प्रेम... बहुत-से सपने और कुल मिलाकर लगभग शून्य-सा एक निम्न-मध्यमवर्गीय युवा.’ ‘ये भी समय है’ में लेखक का मानना है कि समय निर्मम है. वह प्रेम में व्यस्त है. एक नौकरी है, एक घर है, क्रेडिट कार्ड है, एक लोन है, रिश्ता है, सपना है, मंदी है, अमेरिका है, ओबामा है, खुशी है, उल्लास है और स्टार प्लस से कलर्स तक चमचमाता भारत है. यानी लेखक हमें इस सच्चाई से रूबरू कराना चाहते हैं कि समय बेहतर है, इसलिए हम जिंदा हैं. समय उत्तम है कि सांसें अभी आ रही हैं और उसकी किश्तें नहीं देनी प़डती. वह लिखते हैं कि मैं खुश हूं कि मेरा वजूद अभी है. समय अभी हमारा है, कल हो न हो. अंत में लेखक ने अपने समय को इस प्रकार समेटा है-‘समय के इस निरंतर संवाद को संभव है आप कहानी न मानें, पर यह अपने समय की कहानी है — समय जो सबसे छुपके रोने का है।”
टूटते प्रेम और वैवाहिक सम्बन्ध आज के जीवन कई कहानियों का कथ्य हैं. 'उलटी वाकी धार' कहानी में नायक राहुल अपनी प्रेमिका श्वेता से मिलने जाता है तो पता चलता है कि वह गर्भवती है मगर बच्चा नहीं चाहती है. श्वेता गर्भपात करने का फैसला लेती है ‘मैं इस मानसिकता में नहीं जीना चाहती कि मेरा बच्चा मेरे प्री-मैरिटल फीजिकल रिलेशन की पैदाइश है और ये भी कि मुझे उसको सही ठहराने के लिए शादी करनी पडी, जिंदगी भर इस फीलिंग के साथ नहीं जी सकती मैं।’ राहुल की दलीलों के बावजूद अपने बात पर टिकी रहती है. कैज्युअल प्रेम और शारीरिक संबंधों की परिणति इस मोड़ पर होती है. ‘मैकडोनल्ड का शोर अब भी वैसा ही था, भीड में किसी को पता नहीं था कि उनके पास वाली इस टेबल पर कितने तूफान आ के गुजर गए हैं... चुपचाप...’ ‘लाइफ इज ग्रे: कुछ अधूरी प्रेम कहानियां’ में भी प्रेम के अस्थायित्व और उसके परस्पर सुविधा पर आधारित होने की स्थिति दर्शायी गयी है. नायिका मुक्त, बोल्ड और वर्जनाओं को न मानने वाली है . वह कहती है- ''सुनो डियर तुमने कभी मुझसे प्यार नहीं किया और मैंने भी नहीं.. मेरी ठहरी हुई मेरिड लाइफ में मुझे कुछ रिफ्रेशिंग चाहिए था, तुम्हारे साथ भी तो शायद ऐसा ही था, मुझे लगता है, है ना? इसलिए मुझे कोई परवाह नहीं कि तुम्हारी जिंदगी का क्या होता है,. मैंने चाहा और कोशिश की कि हम शानदार समय साथ गुजारें ..मुझे लगता है, मैने पूरी ईमानदारी से ऐसा किया, अब मैं अपने परिवार, पत्नी और बच्चों की जिम्मेदारियां पूरी करना चाहता हूं . जिसका वादा मैंने नहीं किया, उसके लिए मुझे ब्लेम मत करो.. '' ‘बीच सड़क पर’ कहानी में भी नायिका प्रेमी को उलाहना देती है और उसे आजाद रहन्रे की सलाह भी. इस अत्यंत संक्षिप्त कहानी के अंत में नायिका अंतिम बार प्रस्ताव रखती है तो अटपटा लगता है. नायक को संबंधों का बेमानी हो जाना खटकता है.
दुष्यंत की कहानियां इस अर्थ में विशिष्ट हैं कि जातीय, सामुदायिक और यौनिक टकराहटों को रोचकता और वैचारिक तर्कों के साथ पेश करती हैं. ‘प्रेम की उप- कथा’ में अकेलेपन और बेरोजगारी की स्थिति को उजागर किया है- ‘अकेले फिल्म देखना भी अजीब किस्म का अनुभव और शगल है, मगर बारह से तीन के शो में अकेले फिल्म देखना कभी-कभी मजबूरी भी हो सकती है. फिल्म भी कितनी प्यारी सी चीज है, तीन घंटे तक आप अपनी दुनिया से निहायत दूर कल्पनालोक में विचरते हैं, तमाम व्यक्तिगत पी़डाओं से अलग कुछ वक्त, जहां कुंठाओं का निवारण होता है और आप अपने आपको फैंटेसी में महसूस करते हैं. इस दौरान फिल्म ठीक एक दर्द निवारक गोली की तरह काम करती है और सारे दुख और पी़डाओं को हर लेती है, चाहे कुछ वक्त के लिए ही सही.’ ‘सामने वाली टेबल पर उर्फ एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा ‘ में माहौल का वर्णन रोमांटिक मूड में किया गया है. सामने वाली टेबल पर एक ल़डकी को देखा, तो कथानायक को ऐसा लगा, जैसे वक्त थम सा गया है. वह बहुत देर तक उस ल़डकी को निहारता है, क्योंकि उस ल़डकी को उसके निहारते से कोई आपत्ति नहीं थी. उस प्यारी सी सूरत को देखकर ऐसा लग रहा था, जैसे ईश्वर ने फुर्सत से उस ल़डकी को बनाया है और लेखक उस ल़डकी की सुनहरी यादों में खो जाता है. ‘ताला चाबी दरवाजा और संदूक’, कहानी में महानगर के एक रेस्त्रा की चर्चा की गई है, जहां दोनों प्रेमी बैठे हैं और किसी की निगाह उन पर नहीं प़ड रही है. कथानायक को अपनी दादी की भूली बिसरी प्रेम कथा और उनका प्रेम पत्र संदूक में छुपा कर ताला लगाये रखना याद आ जाता है. इस कहानी में एक संवाद है. ‘कुछ लोग ऐसे ही होते हैं, उन्हें गालियां निकालो, भूल जाओ और आगे ब़ढ जाओ.’ ये छोटी-छोटी बातें पाठकों को बांध कर रखती हैं.
दुष्यंत ने अपनी कहानियों में आज के समय और यथार्थ पर मार्मिक और तीखी टिप्पणी की है किस्सागो के जादुई हुनर में पाठकों को बांध लेने वाली कहानियां, बहुत सधी हुई हैं. यह एक पठनीय किताब है, क्योंकि इसमें छोटी-छोटी दिलचस्प और मार्मिक कहानियां हैं जैसे ‘मुस्कुराती हुई लड़की’ जिसमें एक अनाथ और हंसमुख बच्ची से मिलकर लेखक प्रसन्न होता है और उसके अचानक कहीं चले जाने से वह खालीपन महसूस करता है. इन कहानियों में पाठक समय से सीधे मुठभेड़ करता है और अनावश्यक शब्दाडम्बर से बचा गया है. अनेक अप्रिय स्थितियों को कहानियों में पिरोया गया है जिनसे हर किसी का कभी न कभी सामना होता है.
सरिता शर्मा
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जुलाई की एक रात (कहानी संग्रह) - दुष्यंत, प्रकाशक: पेंग्विन, नई दिल्ली/2013