मित्रो इस बार पाठकनामा में हैं भारतीय ज्ञानपीठ से युवा ज्ञानपीठ नवलेखन, 2010 पुरस्कार से सम्मानित युवा कवि- कथाकार विमलेश त्रिपाठी के सद्य प्रकाशित काव्य- संग्रह पर डॉ. ऋषिकेश राय व पूनम शुक्ला के आलोचनात्मक समीक्षा आलेख।
• बक्सर, बिहार के एक गांव हरनाथपुर में जन्म ( 7 अप्रैल 1979 मूल तिथि)। प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही। • प्रेसिडेंसी कॉलेज से स्नातकोत्तर, बीएड, कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधरत। • देश की लगभग सभी पत्र- पत्रिकाओं में कविता, कहानी, समीक्षा, लेख आदि का प्रकाशन। • कविता और कहानी का अंग्रेजी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद।
• सांस्कृतिक पुनर्निर्माण मिशन की ओर से युवा शिखर सम्मान।
• भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार
• ठाकुर पूरण सिंह स्मृति सूत्र सम्मान
• भारतीय भाषा परिषद युवा पुरस्कार
• राजीव गांधी एक्सिलेंट अवार्ड
पुस्तकें
• हम बचे रहेंगे कविता संग्रह, नयी किताब, दिल्ली
• एक देश और मरे हुए लोग, कविता संग्रह, बोधि प्रकाशन
• अधूरे अंत की शुरूआत, कहानी संग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ
• कैनवास पर प्रेम, उपन्यास, भारतीय ज्ञानपीठ से शीघ्र प्रकाश्य
• 2004-5 के वागर्थ के नवलेखन अंक की कहानियां राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित।
• देश के विभिन्न शहरों में कहानी एवं कविता पाठ
• कोलकाता में रहनवारी।
• परमाणु ऊर्जा विभाग के एक यूनिट में कार्यरत।
• संपर्क: साहा इंस्टिट्यूट ऑफ न्युक्लियर फिजिक्स,
1/ए.एफ., विधान नगर, कोलकाता-64.
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कविता का जनपद (एक देश और मरे हुए लोग - विमलेश त्रिपाठी ) - डॉ. ऋषिकेश राय
विमलेश त्रिपाठी हाल के वर्षों में उदीयमान एक सशक्त और चर्चित नाम है। उनका पहला संग्रह हम बचे रहेंगे काफी चर्चित रहा और पाठकों और आलोचकों से उसे काफी सराहना मिली। अब जब उनका दूसरा संग्रह एक देश और मेरे हुए लोग आया है तो उनकी कविताओं पर गंभीरता से बात होनी चाहिए। विमलेश एक सक्षम युवा कवि हैं और उनकी कविताएं पढ़ने के बाद यह निश्चय ही कहा जा सकता है कि ये यहीं रूकने वाले नहीं हैं वरन् वे कविता के संसार में एक लंबी पारी खेलने वाले हैं।
एक देश और मरे हुए लोग संग्रह की कविताएं विषयों के अनुसार उपशीर्षकों में विभाजित हैं। आत्माभिव्यक्ति की कविताएं ‘इस तरह मैं’, स्त्री जीवन की कविताएं ‘बिना नाम की नदियां’ शीर्षक के तहत संकलित हैं। समकालीन कविता दो पाटों के बीच बहने वाली कविता है। एक निजता और उत्सवधर्मिता तथा दूसरी संघर्ष और प्रतिवाद की कविता। यह आश्वस्तिजनक है कि विमलेश का कवि इन दोनों छोरों का स्पर्श नैसर्गिक संवेदनात्मकता के साथ करता है।
आज के इस आक्रांत और संकुल समय में शब्द की ताकत पर भी पहरा बिठा दिया गया है। अभिव्यक्ति का खतरा मुक्तिबोध के समय से भी अधिक भयावह हुआ है। इस पर भी विमलेश बोलने, बतियाने और संवाद की ताकत पर भरोसा रखते हैं, भले ही उसके लिए सदियों की यात्रा ही क्यों न करनी पड़े। शब्दों में अटूट आस्था विमलेश की काव्यचिंता के मूल में है। वे केदार जी के शब्दों में कहें तो शब्दों से मनुष्य की टकराहट के धमाके को सुनने वाले कवि हैं। वे अपनी प्रतिबद्धता की घोषणा खुले तौर पर करते हैं। नगरीय जीवन में रचने-बसने वाले इस कवि के अंदर हांफता हुआ गांव है, जिसमें हंकासल-पियासल लोग हैं, कुंआ पाठशाला और पेड़ हैं, जिनपर उजड़ने और बिला जाने का खतरा है। कवि अपने गांव की स्मृतियों को सपने में सहेज रहा है। वह इन्हें विस्थापित नहीं होने देना चाहता। उसे विश्वास है कि दुनिया के रहने लायक न होने पर भी वह हरी और डापुट दूब की शक्ल में नया रूपाकार ग्रहण करेगा। विनाश और विलोप के बीच उसकी उत्तरजीविता सृजन और निर्माण की संभावनाओं के द्वार पर दस्तक देती है। कवि की संवेदना की असली जमीन गांव की देशज जमीन है, जो मूर्ख कहलाकर भी कलाओं का संरक्षण करती है। आधुनिकता प्रेरित नागर बोध ने हमें बेईमान और निर्लज्ज बना दिया है। कवि खीझकर और सायास बुद्धि के इस तमगे को अस्वीकृत कर देता है –
इसलिए हे भंते मैं पूरे होशो-हवास में
और खुशी-खुशी
मूर्खता का वरण कर रहा हूं।
यह मूर्खता ऐसी शक्ति है जो कवि से कहलवाती है –
बहुत हो गया
यह रही कलम और ये छंद
मैं जा रहा हूं
सदियों से राह तकते
पथरायी आंखों वाले
उस आदमी के पास ।
बौद्धिकता और उसके नाम पर तमाम प्रवंचनाओं में डूबे आत्मकेन्द्रित वर्ग के छद्म के तिलस्म को तोड़ती ये पंक्तियां समकालीन कविता के सरोकार का पता देती हैं। आज सच को भी झूठ की तरह लिया जाने लगा है, बावजूद इसके कवि सच कहने और सहने की शक्ति की आकांक्षा करता है। इस आशा में कि एक दिन उसे सच समझा जाएगा। सच के प्रति इस अदम्य आकर्षण से भरकर कवि धरती को बचाने के लिए एक राग रचना चाहता है। यह राग, जीवन राग है, जिससे भरकर विमलेश का कवि दूब के साथ उगना और मछलियों के साथ अतल गहराइयों में तैरना चाहता है।
संग्रह में संकलित स्त्री जीवन की कविताओं में ‘बहनें’ एक मार्मिक कविता है जो अत्यन्त सहानुभूति से मानवीय संबंधों की उष्मा को मध्यवर्गीय परिवेश में उकेरती है। स्त्री जीवन की निस्संगता की ओर भी कवि का ध्यान बखूबी गया है।
इस तरह किसी दूसरे से नहीं जुड़ा था उनका भाग्य
सबका होकर भी रहना था पूरी उम्र अकेले ही
उन्हे अपने हिस्से के भाग्य के साथ।
आधुनिक जीवन के दबावों ने संबंधों को भी प्रभावित किया है। संबंधों में उपभोक्तावाद इसका सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण है। अकारण नहीं कि विमलेश इन संबंधों में बची उष्णता को सहेज लेना चाहते हैं। ‘मां के लिए’ और ‘आजी की खोई हुई तस्वीर मिलने पर’ ऐसी ही कविताएं हैं। परंतु ये कविताएं समकालीन कविता में लिखी जाने वाली रोमानी कविताओं से अलग हैं, जहां संबंधों को एक बंधी और घिरी हुई दृष्टि से देखने की प्रवृति है।
संग्रह में ‘एक पागल आदमी की चिट्ठी’ और ‘आम आदमी की कविता’ जैसी लंबी कविताएं भी शामिल हैं, जो विमलेश की काव्य-यात्रा की भावी दिशा की ओर संकेत करती हैं। लंबी कविताओं में प्रायः तनाव को बरकरार रख पाना कठिन होता है। विमलेश ने इस कार्य को बखूबी किया है।
प्रस्तुत संग्रह में स्मृतियों का दबाव साफ झलकता है। कहीं-कहीं कवि की काव्यात्मकता समकालीन आलोचना के जार्गन्स के अनुसार ढलती चली जाती है। जमपदीय चेतना से प्रभावित कवि की भाषा में नोहपालिश, सरेह, सोझबक जैसे भोजपूरी शब्द उसकी जातीय पृष्ठभूमि की ओर संकेत करते हैं। मिछिल जैसे बांग्ला शब्दों का प्रयोग भी यथास्थान किया गया है।
विमलेश की कविता में बिम्बात्मकता है और लोकजीवन से जुड़े कुछ टटके बिम्ब भी हैं। पर कहीं-कहीं अतिरिक्त बिम्बात्मकता के आग्रह के कारण इसका स्वाभाविक प्रवाह और संप्रेषणीयता बाधित भी हुई है। ऐसी समस्या उन सभी कवियों के साथ कमोबेश है जिनका काव्य संस्कार नब्बे के दशक में आशोक वाजपेयी, विनोद कुमार शुक्ल और केदारनाथ सिंह की कविताओं को पढ़कर परवान चढ़ा है। अमूर्तन और अबूझ बिम्बों ने कविता के समक्ष पठनीयता का संकट उत्पन्न किया है। अभिधात्मक काव्य का भी एक सौन्दर्य होता है, जो जनसंघर्षों और सरोकारों से धार पाता है। प्रस्तुत संग्रह में इसके कई नमूने मौजूद हैं। कुल मिलाकार “हम बचे रहेंगे” में विमलेश ने जिस बीज को रोपा था उसे हम पनपते और जड़ पकड़ते देख रहे हैं।
डॉ.ऋषिकेश राय(उप निदेशक)
(रा.भा.)टी बोर्ड इंडिया, 14, बी.टी.एम. सरणी
( ब्रेबोर्न रोड), कोलकाता – 700001
मो. - 09903700542
समाज के दर्द को दर्शाती कविताएँ - पूनम शुक्ला
एक
देश और मरे हुए लोग विमलेश त्रिपाठी का दूसरा कविता संग्रह है जो बोधि प्रकाशन की
ओर से आया है । यह संग्रह पाँच भागों में विभाजित है - इस तरह मैं , बिना नाम की नदियाँ , सुख- दुख का संगीत , कविता नहीं और एक देश और मरे हुए लोग । पुस्तक के शरुआत में ही गजानन माधव
मुक्तिबोध जी द्वारा लिखित पंक्तियाँ विमलेश त्रिपाठी पर अपना प्रभाव प्रदर्शित
करती हैं -
अब
तक क्या किया
जीवन
क्या जिया
ज्यादा
लिया और दिया बहुत- बहुत कम
मर
गया देश,अरे, जीवित रह गए तुम
कवि
द्वारा इन पंक्तियों का चुनाव स्वत: ही उनकी आंतरिक इच्छा को उजागर कर देता है ।
आज हम सभी छीना झपटी में लगे हुए हैं । सभी को बस चाहिए देना सभी भूल चुके हैं
जिसका परिणाम एक मरा हुआ देश हम सभी के सम्मुख है । विमलेश त्रिपाठी की प्रारंभिक
शिक्षा एक गाँव में हुई है । इन दिनों वो कोलकाता में हैं । ये बात वे अपनी कविता
" इस तरह मैं " में स्वयं ही कहते हैं -
बहुत
पहले जब आया था गाँव छोड़कर इस शहर कोलकाता में
छूट
गया आम का बगीचा
पानी
से भरी नहर
खेत
खूब लहलहाते
उनकी
कविताओं में अपने गाँव से प्रेम झलकता है पर वहीं कहीं मुझे ये पंक्तियाँ भी दिखीं
। जरूर गाँव में मार्गदर्शन की कमी रही जिसके कारण उन्हें कोलकाता का रुख पकड़ना
पड़ा ।
किसी
ने नहीं कहा कि गाते रहना अच्छा गाते हो
किसी
ने नहीं कहा कि लिखते रहना अच्छा लिखते हो
अब
जबकि वह काफी समय से कोलकाता में हैं अपने गाँव में आए बदलाव को देखकर बहुत दुखी
नज़र आए -
गाँव
में अब बस रह गए हैं सिरफ पागल और बूढ़े
स्त्रियाँ
गाँव के चौखट पर परदेसियों के आने का अंदेशा लिए
जवान
सब चले गए दिल्ली सूरत मुंबई कोलकाता
जंतसार
की जगह गूँजता है मोबाइल का रिंगटोन
पर
अपनी अगली ही कविता -" धरती को बचाने के लिए " में वो सभी का
आह्वाहन करते दिखते हैं जिसे इन पंक्तियों में देखा जा सकता है -
आओ
कि
मिल
कर निर्मित करें एक राग
जो
जरूरी है
बहुत
जरूरी है
इस
धरती को बचाने के लिए
संग्रह
के दूसरे भाग - बिना नाम की नदियाँ में कवि ने स्त्रियों की दशा का बड़ा ही
मार्मिक वर्णन किया है । कविता "बहनें " में वे कहते हैं -
उनके
पास अपना कुछ नहीं था
सिवाय
लड़की जात के उलाहने के
रसोई
में धुँए व आग के बीच तपती थीं वे
क्या
उन्हें स्कूल जाने का मन नहीं करता था
गाँवों
में लड़कियों को कम ही पढ़ाया जाता है और जल्दी ही उनका विवाह कर दिया जाता है ।
इसका चित्रण उन्होंने बड़ी कुशलता के साथ किया है पर ये पंक्तियाँ पढ़ते - पढ़ते
मेरी भी आँखें नम हो गईं -
साल
के एक दिन
उनकी
भेजी हुई राखियाँ आती थीं
या
अगर कभी आ गईं वे खुद
तो
जैसे उल्टे पाँव लौट जाने के लिए ही आती थीं
सचमुच
एक लड़की का जहाँ जन्म होता है, जहाँ वो पली बढ़ी होती
है वही जमीन उसके लिए कितनी पराई हो जाती है । ससुराल से लौटी एक लड़की किस तरह
अपने दुखों को छुपाती है और झूठी हँसी हँसती है कवि ने इस कविता में बड़े ही सहज
ढंग से दर्शाया है । विवाह के बाद एक लड़की की व्यथा को कुछ कम करने के लिए कवि
अपनी कविता "मत भेजना बाबुल" में कहते हैं -
मुझे
मत भेजना वहाँ बाबुल
धन
ही धन हो जहाँ
मुझे
व्यापार करने वाले के पास मत भेजना
भेजना
मुझे तो भेजना मेरे बाबुल
उस
लोहार के पास भेजना
जो
मेरी सदियों की बेड़ियों को पिघला सके
वो
लड़कियाँ जिन्हें होस्टल में पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हो चुका है उनके लिए वे कहते
हैं -
वे
जीना चाहती हैं तय समय में
अपनी
तरह की जिन्दगी
जो
उन्हें भविष्य में कभी नसीब नहीं होना
कविता
होस्टल की लड़कियाँ में वे कहते हैं -
उन्हें
जरूरत खूब चमकीले धूप की
जिसपर
जता सकें वे अपना हक किसी भी मनुष्य से अधिक
विमलेश
त्रिपाठी की कविताएँ बहुत संवेदनशील हैं और उनकी पारखी नज़र मुझे बहुत आश्चर्यचकित
कर रही है । कवि का जरूर अपनी माँ और बहनों से बहुत ज्यादा लगाव रहा है जिसके कारण
वो स्त्रियों की दशा को इतनी बारीकी से समझ सकें हैं ।
तुम्हें
ईद मुबारक हो सैफूदीन ,अंकुर के लिए ,महज लिखनी नहीं होती हैं कविताएँ ,तीसरा,पानी और एक पागल आदमी की चिट्ठी कविताएँ उल्लेखनीय हैं । पागल आदमी की
चिट्ठी एक लंबी कविता है जिसके जरिए कवि देश और समाज के हालात बड़ी ही कुशलता के
साथ उजागर करते हैं । इन पंक्तियों से कविता की तीक्ष्णता का अंदाजा लगाया जा सकता
है -
पागल
आदमी की चिट्ठी में
नींद
नहीं होती
असंभव
सपने होते हैं
कविता
का मतलब सन्नाटा
देश
का मतलब चुप्पी
सरकार
का मतलब महाजन
जनता
का मतलब गाय
एक
देश और मरे हुए लोग संग्रह की अंतिम पर लंबी कविता है जिसके द्वारा कवि ने देश की
जनता को झझकोर कर जगाने का पूरा प्रयास किया है । विमलेश त्रिपाठी की कविताओं की
खासियत ये है कि कविताएँ तीक्ष्ण व दर्द से लपटी हुई है पर साथ ही पठनीय भी हैं ।
संग्रह का आवरण चित्र कुँवर रवीन्द्र द्वारा चित्रित है जो शीर्षक को और भी
अर्थपूर्ण बना देता है ।
पूनम शुक्ला (कवयित्री )
50- डी , अपना इन्कलेव , रेलवे रोड,गुड़गाँव, 122001
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एक देश और मरे हुए लोग-कविता संग्रह/विमलेश त्रिपाठी/ प्रथम संस्करण सितंबर 2013/पेपरबैक, /पृष्ठ 144/मूल्य : 99.00 रुपये मात्र, / आवरण चित्र : कुंअर रवीन्द्र/बोधि प्रकाशन,जयपुर, /, संपर्क : 077928 47473
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