पाठकनामा में इस बार है युवा कवयित्री मृदुला शुक्ला के पहले काव्य संग्रह ’उम्मीदों के पांव भारी है’ पर शिक्षाविद आलोचक महेश पुनेठा युवा कवि- समीक्षक नील कमल और संजय शेफर्ड की टिप्पणियां व रामजी तिवारी, ज्योति खरे और मेरी पाठकीय टीप्पणी के साथ कंडवाल मोहन मदन द्वारा विस्तार से लिखा समीक्षात्मक आलेख।
मृदुला शुक्ला का कविता संग्रह 'उम्मीदों के पांव भारी हैं ' पढ़ रहा हूँ . इसकी कवितायेँ नयी उम्मीद जगाती हैं . कविताओं की संश्लिष्टता और सघनता तथा प्रतीकों की नवीनता आकर्षित करती है . - महेश पुनेठा
"उम्मीदों के पाँव भारी है" ये कवितायें पढ़े जाने की मांग करती हैं ...
'बूढी औरत बजा रही हो सारंगी
बूढा गुड़गुड़ा रहा हो हुक्का
और जवान औरत और आदमी
मिल कर चला रहे हों चक्की'
दीवार पर टंगी एक तसवीर के पात्रों की जगह बदल देने की चिंता मृदुला शुक्ला के संग्रह (उम्मीदों के पाँव भारी हैं) की केन्द्रीय चिंता है । सधी हुई भाषा में दृढ़ता के साथ अपनी बात रखता यह स्त्री कंठ हिन्दी कविता में सुने जाने की माँग रखता है । यहाँ अपना स्वर्ण युग ढूँढ़ती बेचैन स्त्री है तो हथियार के साथ लड़ाई के लिए तैयार स्त्री भी है । बहुत सारी बेहतर कविताएँ इस कवि को भीड़ से थोड़ी अलग जगह दिला पायेंगी यह विश्वास किया जा सकता है ।" युवा कवि- समीक्षक नील कमल
मृदुला शुक्ला का कविता संग्रह ' उम्मीदों के पांव भारी हैं' जीवन की एक अप्रत्याशित उम्मीद है। जिसमें जीवन की वह तमाम विविधताएं निवास करती हैं जो जीवन में कदम-दर कदम घटित होती रहती हैं। - युवा कवि और समीक्षक संजय शेफर्ड के इन नोट्स को पढ़ मेरे मेरे मन भी उत्कंठा जगी "उम्मीदों के पांव भारी है" के काव्यालोक में विचरण की। "उम्मीदों के पांव भारी है"..शीर्षक ही चौंकानेवाला लगता है और आकर्षित करता है क्यों कि पांव भारी होना उक्ति हमारे यहां एक मिथक रूप में जाना- पहचाना जाता है। जिन अर्थों में लिया जाता है उसे देखते हुए जो बिम्ब मन खड़ा होता है उसी को ध्यान में रख जब मैं ’उम्मीदों के पांव भारी है’ के काव्य संसार में प्रविष्ट हुआ तो इसके उसके एक सर्वथा भिन्न नए अर्थ - संदर्भ ने मुझे चमत्कृत किया।
कवयित्री मृदुला शुक्ला ने अपने इस पहले ही काव्य संग्रह में जिस परिपक्वता के साथ उम्मीदों के पांव भारी किए हैं उससे उनके कवि की काव्य- प्रतिभा के प्रति आश्वस्ति मिलती है। इसका एहसास और विश्वास संग्रह के आरंभ से ही मिल जाता है....
"मैं तो बनना चाहती हूं-
राख के नीचे दहकता हुआ
गोचर का उपला
जिसे शाम के धुंधलके में
कलछुल में मांगा जाता रहा है
हजारों हजार बरस से" मृदुला शुक्ला के राख के नीचे दहकता उपला बनने की यह अभिलाषा संग्रह की इस पूरी काव्य यात्रा में पूरी संजीदगी और पूरे उनमान के साथ महसूस होती है। इस यात्रा को करते हुए कवि मन जानता है कि उसकी यात्रा निरापद नहीं है
’मगर उसे तो नमी रोपनी थी
आर्ट गैलरी में घूमते अभिजात्य वर्ग की आंखों में’ नमी रोपती हुयी और
’जीवन आकांक्षा नहीं आशा होता है
डॉक्टर के आखिरी ना में सिर हिलाने तक’ का विश्वास मन में लिए वह निर्झर बहती जाती है अपनी राह सारी चुप्पियों को तोड़ती क्यूंकि वह मानती है कि
’दरअसल चुप्पियां स्वेच्छा से
ओढा हुआ ताबूत होती हैं’ रास्ते के ऊहापोह भरे उन बीहड़ों से गुजरते हुए भले ही
"इच्छाएं न तो मुक्त होती हैं स्वयं
और न करती हैं हमें
हमारे कंधे ढोते रहते हैं
उनकी बजबजाती लाश" और
"कठिन समय में हथियार डालते हुए
आप खुद को पाते हैं बेबस, लाचार" त्रेता के धोबी पीछे लगे हों
"अरे त्रेता के धोबियो
कलयुग में फिर से आ गए
खाप बनकर (एक थी खाप)
और जीवन का यह कटु सत्य हो कि
"धत औरतों से भी कभी कोई प्रेम करता है
उन से तो इश्क किया जाता है" जैसी विपरीत, ओछी फब्तियों से दो- दो हाथ करते कवयित्री अपने साहस को पोषती और दृढ़ होती जाती है क्यों कि उसके कवि का मानना है कि
"जब आप जीत कर भी हारे हुए से घर लौटते हैं" के साथ
"सिमटती ज़मीन ने गढे घरों के नए नाम
घर सिमटे फ्लैट में
और ज़िंदगियां बैडरूम हो गयी" और घरों में स्थितियां
" "ये जो घरनुमा इमारत है
इसकी ज़मीन पोपली है
उसमें तहखाने हैं बहुत" है तो आपके सामने दो ही विकल्प रह जाते हैं या तो आप इसे विधि का विधान मान लें या इसे एक सबक मान दुगने जोश से फिर मैदान में कूद पड़े और स्वयं को साबित करें, कुछ ऎसी ही ठान मृदुला जी की है जो
"हम अपने रंगों के सारे सपने
गूंथ डालते हैं उस आटे में " के नित्य कर्म में भी अपने सारे सपनो को गूंथते हुए
"मगर क्या करुं मेरी उम्मीदों के पांव भारी हैं
मेरे सपने पेट से हैं" जैसी मनगत पालते हुए पेट में सपनो के भ्रूण को पालते हुए उम्मीदों से अपनी जीवट जिजीविषा के साथ साहस- संघर्ष के पांव भारी रखते हुए कह पाती है,
"मौन कायरता ही नहीं
कुंद हुए हथियारों को डाल देना है
सीले गोदामों में जंग लगने के लिए" और यह उसे कभी स्वीकार्य नहीं, हर गलत से लोहा लेना चाहती है और इसके लिए
"उसके लिए सबसे लड़ना
और फिर झूठ बोलना
तब मैंने झूठ बोलना सीखना शुरु किया ही था
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तब तक मैंने पक्का वाला झूठ बोलना सीख लिया था" से भी गुरेज नहीं करती, इतना ही नहीं वह पूरे खम के साथ
"सभी पत्थरों से देवता
निकल आएंगे बाहर"
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"डिवाइडर अड़े रहते हैं
सगोत्र विवाह किए प्रेमियों के बीच
खाप पंचायतों से, आखिरी छोर तक"
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"आओ हम
त्रिया चरित्र शब्द गढ़नेवालों के चरित्र के लिए एक नया शब्द गढें" जैसी ललकारों के साथ अपनी दुंदुभि बजाती है और चुनौतियां देती है, उसे पता है और उसका कवि इस सच से नावाकिफ नहीं कि
"हमारे कामरेड
तो लटके हैं खूंटियों पर" और
"तुम कहां समझ पाते हो
कि ताप भीतर ज्यादा है कि बाहर
नमी मौसम में ज्यादा है कि आंखों में" नासमझों के बीच रहने, जीने के बावजूद अपने वजूद को न केवल साबित करने की इच्छा पाले है बल्कि उसे विशेष रूप से रेखांकित- तारांकित करने की जिद पाले हैं, वह भी उस माहौल में
"अब जबकि, उकताहटें हावी हैं
प्रतिबध्दताओं पर
छद्म मौलिकता के इस विषम दौर में
मैं रोज भरती हूं उन में
समुद्री हरा, नीला आसमान
उम्मीद करता हूं कि मृदुला की काव्य यात्रा के उम्मीदों के ये भारी पांव अपने पथ पर उत्तरोतर अपना भारीपन कायम रखेंगे................
‘उम्मीदों के पाँव भारी हैं’ (कविता-संग्रह) ........... मृदुला शुक्ला | - रामजी तिवारी
रामजी तिवारी
(एक पाठकीय प्रतिक्रिया)
कविता की इस किताब के शीर्षक ने मुझे मेले से लायी गयी पुस्तकों में सबसे पहले अपने को पढने के लिए प्रेरित किया | उम्मीदों और विश्वासों से वीरान होती हुयी इस दुनिया में उनके बचे होने की आस बंधाता हुआ इसका शीर्षक बहुत अपील करता है | संग्रह को पढने के बाद कह सकता हूँ कि कविता के साथ-साथ समाज को देखने और समझने के नजरिये से मेरी भी “उम्मीदों के पाँव भारी हैं |” अपने पहले कविता संग्रह में मृदुला शुक्ला जिस वैविध्य, सहजता , साफगोई और ईमानदारी के साथ सामने आती हैं, वह आश्वस्ति जगाने वाला है | हालाकि जो सहजता मेरे जैसे पाठकों के लिए इस संग्रह की एक बड़ी खूबी है, संभव है कि आलोचकों की नजर में उसे एक खामी के रूप में भी देखा जाए | फिर भी इतना तो जरुर कहना चाहूंगा कि इनके सहारे हमारे सामने अपने समाज को देखने और समझने की एक खिडकी तो अवश्य ही खुलती है |
मृदुला शुक्ला अपनी सीमाओं को जानती हैं, और अपने ऊपर लगने वाले आरोपों को भी | तभी तो वे अपनी कविता में खुद ही जबाब देती हैं कि “हमें गाने दो / हमारा आदिम अनगढ़ गान |” और संग्रह को पढने के बाद लगता है कि ऐसे ‘अनगढ़ गान’ और गाये अधिक जाने चाहिए, और अधिक सुने जाने चाहिए | कारण यह कि इनमें इस दुनिया को और अधिक न्यायपूर्ण बनाने की ईच्छा तो पलती ही है, और ‘आग’ के उस रूप के होने की तमन्ना भी, जिसमें वे कहती हैं कि “मैं तो बनना चाहती हूँ / राख के नीचे दहकता हुआ / गोबर का उपला / जिसे शाम के धुंधलके में / कलछुल के माँगा जाता रहा है / हजारों हजार बरस से / कि / जिसने भूख मिटाई है / सदियों तक / सभ्यता की / चुपचाप |”
ये कवितायें हमें उस लोक में ले जाती हैं, जिसके किवाड़ बतौर पुरुष हमारे लिए शायद ही कभी खुलते हैं | वह स्त्री की नजर ही होती है, जो हमें इस लोक के दरवाजे तक पहुँचाती है, और अपनी रचनाओं की चाबी से इस दुनिया के भीतर का सच दिखाती हैं | मसलन अपनी कविता “बस एक दिन जियो मेरे जैसे भी” में ‘मृदुला शुक्ला’ हमारे सामने कुछ सहज सवालों को रखती हैं | अब यहीं पर कविता की ताकत दिखाई देती है, जिसमें इतने सहज सवाल भी हमें इतने असहज देते हैं | जैसे हम इन सवालों को जानना भी चाहते हैं और उनसे भागना भी | इस संग्रह की कुछ अन्य कवितायें - जैसे ‘अकाल का चित्र’ , ‘औरतों से भी कभी प्रेम किया जाता है’ , ‘उम्मीदों के पाँव भारी हैं’ , ‘रिश्ते’ ‘सीमा-प्रहरी’ , ‘सिमटती जमीन’ ‘ स्वयंभू पञ्च’ ‘त्रिया-चरित्र’ ‘टूटना चूड़ियों का’ ‘ उदासी’ और ‘जिंदगी’ - भी पाठक का ध्यान अपनी ओर खींचती हैं |
हालाकि भाषा और वर्तनी की कुछ अशुद्धियाँ भी इस संग्रह की कविताओं में दिखाई देती हैं, और उनसे पठनीयता भी बाधित होती है, लेकिन कुल मिलाकर यह संग्रह उम्मीद और आशाओं को संजोने वाला संग्रह है | न सिर्फ कविता की विधा के सम्बन्ध में, वरन कवयित्रियों की नई पौध के सम्बन्ध में भी | जिनके मन में कहने के लिए अकुलाहटो की एक लम्बी क़तार है, यह संग्रह उन बहुत सारे लोगों को आगे लिखने के लिए प्रेरित करेगा, ऐसा मुझे लगता है |
मृदुला शुक्ला को हमारी तरफ से ढेर सारी बधाई और शुभकामनाएं |
- रामजी तिवारी
ज्योति खरे |