पाठकनामा
- पाठकनामा Pathhaknama
- मित्रों! एक शुभारंभ लिखने-पढने और लिखे-पढे को जांचनेवालों के लिए। हम सब जानते हैं.. लिखा बहुत और बहुत जा रहा है, लेखक-लेखन भी बहुत सरल-सुलभ होता जा रहा हैं लेकिन विडंबना के साथ इसका एक बहुत बड़ा दूसरा पहलू और प्रश्न कि पढा कितना और क्या जा रहा है? पाठकनामा यही जानने और जानकारी देने का प्रयास है जिसमें हम आप सभी के सहयोग और सहभागिता से लेखक और पाठक के बीच एक संवाद स्थापित करने का उपक्रम करने का सद्प्रयास करेंगे। पाठकनामा में लेखक , प्रकाशक अपनी कृति के बारे में तथा आलोचक, पाठक अपनी पढी किसी लेखक की कृति के बारे में अपने विचार, समीक्षा, आलोचना यहां साझा कर सकता है। कृति की समीक्षा, आलोचना, पाठकीय टीप्पणी मय कृति कवर,प्रकाशन विवरण पाठकनामा में भेजी जा सकती है या समीक्षा, आलोचना के लिए लेखक, प्रकाशक अपने प्रकाशन भी दो प्रतियां पाठकनामा को भी भेजी जा सकती है। पाठकनामा केवल एक निरपेक्ष मार्ग है पाठक को किताब तक पहुंचाने और पढने के लिए प्रेरित करने का। इस संदर्भ में और सार्थक महत्त्वपूर्ण सुझाव आमंत्रित है.. अपनी पुस्तक के कवर की फ़ोटो, की गयी आलोचना-समीक्षा आप editor.pathhaknama@gmail.com को भेज सकते हैं ।
Friday 27 November 2015
मशीन (कहानी) - वंदना देव शुक्ल
Email – shuklavandana46@gmail.com
नाम – इस्नावती (तस्वीर )
Friday 20 November 2015
बिना हासलपाई उचटी हुई नींद - डा. नीरज दइया
मित्रो! पाठकनामा में आज प्रस्तुत है साख, देसूंटो तथा पाछो कुण आसी (कविता-संग्रह), निर्मल वर्मा तथा अमृता प्रीतम की किताबों के राजस्थानी में अनुवाद। "आलोचना रै आंगणै" (2011), “बिना हासलपाई (2014) "जादू रो पेन" बाल कथाएं, "सबद-नाद" 24 भारतीय कवियों की कविताओं के राजस्थानी-अनुवाद, उचटी हुई नींद (हिन्दी कविताएं) तथा मंडाण संपादन राजस्थानी के 55 युवा कवियों की कविताएं (2012) आदि कृतियां राजस्थानी और हिन्दी को देनेवाले हिन्दी- राजस्थानी दोनों में साधिकार लिखनेवाले युवा कवि, आलोचक, बाल साहित्यकार डा. नीरज दइया के सद्य प्रकाशित राजस्थानी आलोचना संग्रह ’बिना हासलपाई’पर वरिष्ठ कवि- आलोचक भवानी शंकर व्यास व हिन्दी काव्य संग्रह ’उचटी हुई नींद’ पर विजय शंकर आचार्य द्वारा लिखित समीक्षा आलेख
१
डॉ. नीरज दइया की आलोचना-दृष्टि और सृष्टि - भवानीशंकर व्यास ‘विनोद’
आलोचना बौद्धिक प्रकृति का साहित्यिक-सांस्कृतिक कर्म है अतः आलोचक का नैतिक दायित्व बनता है कि वह किसी कृति की विषद व्याख्या और तात्विक मूल्यांकन करते हुए उसमें व्याप्त बोध की अभिव्यक्ति और उसके निहितार्थ को समाने लाए। उसका यह भी दायित्व है कि वह आज के जटिल समय में किसी कृति की समग्रता को इस प्रकार प्रस्तुत करे कि पाठक की समझ का विकास हो और वह बिना किसी अतिरिक्त बौद्धिक बोझ के रचना का आस्वाद ले सके। काल के अनंत प्रवाह में कृति की अवस्थिति की पहचान ही आलोचना है।
सही दृष्टि वाले आलोचक के मन में कुछ प्रश्न हमेशा कुलबुलाते रहते हैं। जैसे आलोचक के इस अराजक और अविश्वसनीय युग में वह कैसे अपनी तर्क बुद्धि और विवेक का उपयोग करे? निरपेक्ष तथा तटस्थ किस प्रकार रहे? सच कहने व किसी रचना के कमजोर पक्षों को उघाड़ने का साहस कैसे करे? और परंपरा एवं निरंतरता के बीच समीकरण कैसे बिठाए? ये कुछ बुनियादी प्रश्न हैं जिनसे पूर्वाग्रह रहित आलोचक का भिड़ना होता रहता है। आलोचना की परंपरा में दो नाम निर्विवादित रूप से उभर कर आते हैं। इनमें पहला नाम है आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का तथा दूसरा है डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी का। आचार्य शुक्ल कृति को केन्द्र में रखकर मूल्यांकन करते थे। वे कृतिकार से चाहे वह कितना ही दिग्गज क्यों न हो, प्रभावित हुए बिना अपना निर्णय दिया करते थे।
उधर डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी भी कृति को तो केन्द्र में रखते थे पर रचना में निहित सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, दार्शनिक व मनोवैज्ञानिक संदर्भों में भी सहज रूप से संचर्ण करने में नहीं हिचकिचाते थे। संचरण के बाद वे कृति पर फिर से उसी प्रकार लौट आते थे जैसे कोई संगीतज्ञ लम्बे आलाप के बाद सम पर लौट आता है। इन दोनों दृष्टियों में आलोचना के जो गुणधर्म सामने आते हैं वे इस प्रकार हैं- कृति घनिष्ठता, आस्वाद क्षमता, संवेदनशीलता और प्रमाणिकता। इसके अलावा एक प्रकार का खुलापन, चारों ओर से आने वाले, चिन्तन का स्वागत, प्रस्तुति का पैनापन तथा पक्षधरता के स्थान पर पारदर्शिता का प्रदर्शन आदि भी स्वास्थ आलोचना के महत्त्वपूर्ण घटक हैं।
मेरे सामने डॉ. नीरज दइया की आलोचना पुस्तक ‘बिना हासलपाई’ है। मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि डॉ. दइया ने दोनों प्रणालियों से जुड़े इन आठों बिन्दुओं का मनोयोग से पालन किया है। आचार्य शुक्ल और डॉ. द्विवेदी के युग के अस्सी वर्ष बीत जाने के बाद भी हिंदी साहित्य में आलोचना के मानक साहित्य शास्त्र का अब तक विकास नहीं हुआ है फिर राजस्थानी कहानी-आलोचना तो वैसे ही रक्त अल्पता का शिकार है तथा पक्षधरता से अभिशप्त रही है। ऐसे में यदि स्वस्थ व निरपेक्ष दृष्टि की कोई आलोचना पुस्तक सामने आए तो उसका स्वागत किया ही जाना चाहिए।
आलोचना का प्रस्थान बिंदु है साहस। डॉ. दइया ने साहस के साथ कहानी-साहित्य को कथा साहित्य कहने का विरोध किया है क्यों कि कथा शब्द में कहानी व उपन्यास दोनों का समावेश होता है (केवल कहानी का नहीं)। उसे कथा शब्द से संबोधित करना भ्रम पैदा करता है। साथ ही उन्होंने केवल परिवर्तन के नाम पर उपन्यास को नवल कथा कहने की प्रवृति का भी विरोध किया है क्यों कि इस अनावश्यक बदलाव की क्या आवश्यकता है?
व्यक्तियों के नाम से काल निर्धारण करने की प्रवृति को भी वे ठीक नहीं मानते क्योंकि ऐसा करने से आपधापी, निजी पसंद-नापसंद, आपसी पक्षधरता और हासलपाई लगाने के प्रयास आलोचना के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर सकते हैं। डॉ. दइया यह मानकर चलते हैं कि आधुनिक होने का अर्थ समय के यथार्थ से जुड़ना है। ‘बिना हासलपाई’ पुस्तक की एक विशेषता उसकी तार्कितकता और तथ्यात्मकता का है। पच्चीस कहानीकारों में नृसिंह राज्पुरोहित को प्रथम स्थान इसलिए दिया गया क्योंकि उनकी कहानियों में पूर्ववर्ती लोक कथाओं से सर्वथा मुक्ति का भाव है अतः सही मायने में वे ही आधुनिक राजस्थानी कहानी के सूत्रधार माने जा सकते हैं। राजस्थानी कहानी के विकास में कुल जमा साठ वर्ष ही तो हुए हैं। इस अवधि में शुरुआती पीढ़ी से आज तक की नवीनतम पीढ़ी तक चार प्रवृतियां तथा चार पीढ़ियां सामने आती हैं। इसे दृष्टिगत रखते हुए डॉ. दइया ने 15-15 वर्षों के चार कालखण्डों के विभाजन का सुझाव दिया है ताकि चारों पीढ़ियों तथा चारों प्रवृत्तियों के साथ न्याय किया जा सके।
कहानीकारों का चयन संपादक का विशेषाधिकार हुआ करता है। डॉ. दइया ने 25 कहानीकारों की कृतियों को सामने रखकर सारा ताना-बाना बुना है। उसमें ऐसे अनेक कहानीकारों को सम्मिलित नहीं किया गया है जो पक्षधरता या फिर ग्लैमर या कि प्रचार के कारण सभी संकलनों में समाविष्ट होते रहते हैं। पुस्तक में ऐसे स्वनामधन्य, रचनाकारों के विरुद्ध कोई टिप्पणी तो नहीं है पर उनके वर्चस्व के चलते ऐसे उपेक्षित या हल्के-फुल्के ढंग से विवेचित किन्तु उनके समान ही या कहीं-कहीं सृजनात्मक रूप से उनसे भी आगे रहने लायक कुछ कहानीकारों को पूरे सम्मान के साथ जोड़ा गया है। क्या कारण है कि सर्वथा समर्थ और प्रभावशाली कहानीकार भंवरलाल ‘भ्रमर’ के साथ समुचित न्याय नहीं किया गया? क्या कारण है कि प्रथम पीढ़ी के साथ कहानियां लिखने वाले मोहन आलोक को या कन्हैयालाल भाटी को उपेक्षिता रखा गया? चौकड़ी की धमा चौकड़ी के चलते ऐसे कई समर्थ कहानीकार प्रकाश में नहीं आ सके जिनकी कहानियां वर्षों से पत्रिकाओं में छपती रहती थी। चूंकि पुस्तक रूप में उनके संग्रह बाद में सामने आए, क्या यही उपेक्षा का वजनदार कारण बन सकता है? संपादक को तो चौतरफा दृष्टि रखनी चाहिए। पत्रिकाओं के प्रकाशन, गोष्ठियों में कहानी-वाचन, सेमिनारों में कहानियों पर चर्चा आदि पर भी सजग संपादकों द्वारा ध्यान दिया जाना चाहिए। पुस्तक रूप में सामने आने न आने पर क्या गुलेरी जी की कहानियों के अवदान को कम आंका जा सकता है? डॉ. दइया ‘आ रे म्हारा समपमपाट, म्हैं थनै चाटूं थूं म्हनै चाट’ वाली प्रवृति के एकदम खिलाफ हैं।
इस पुस्तक की एक और विशेषता संपादक की अध्ययनशीलता की है। उन्होंने कुल 25 कहानीकारों के 55 कहानी-संग्रहों की 150 से अधिक कहानियों की चर्चा की है और वह भी विषद चर्चा। मुझे तो इससे पूर्ववर्ती संकलनों में ऐसा श्रम साध्य काम को करता हुआ कोई भी आलोचक नहीं मिला। कसावट भी इस पुस्तक एक अद्भुत विशेषता है। पृष्ठ संख्या 31 से पृष्ठ संख्या 160 तक के 130 पृष्ठों में सभी 25 कहानीकारों की कहानियों के गुण-धर्म का विवेचन करना और अनावश्यक विस्तार से बचे रहना कोई कम महत्त्व की बात नहीं है। तीसरी और चौथी पीढ़ी के उपलब्धीमूलक सृजन तथा आगे की संभावनाओं को देखते कुछ ऐसे कहानीकारों को भी शामिल किया गया है जिनको पूर्ववर्ती संकलनों में स्थान नहीं मिला।
डॉ. दइया के पास एक आलोचना दृष्टि है तथा कसावट के साथ बात कहने का हुनर भी है। वे कलावादी आलोचना, मार्क्सवादी आलोचना या भाषाई आलोचना के चक्कर में न पड़ कर किसी कृति का तथ्यों के आधार पर कहाणीकार के समग्र अवदान को रेखांकित करते चलते हैं। ऐसा विमर्श, ऐसा जटिल प्रयास कम से कम सुविधाभोगी संपादक तो कर ही नहीं सकते। रचना के सचा को उजागर करने में हमें निर्मल वर्मा की इस टिप्पणी पर ध्यान देना होगा कि ‘आज जिनके पास शब्द है, उनके पास सच नहीं है और जिनके पास अपने भीषण, असहनीय, अनुभवों का सच है, शब्दों पर उनका कोई अधिकार नहीं है।’ मुझे यह लिखते हुए हर्ष होता है कि डॉ. दइया के पास वांछित शब्द और सच दोनों ही है। डॉ. दइया ने सभी कहानीकारों के प्रति सम्यक दृष्टि रखी है, न तो ठाकुरसुहाती की है और न जानबूझ कर किसी के महत्त्व को कम करने की चेष्टा ही की है। एक और बात- प्रथम और द्वितीय पीढ़ी के कहानीकारों की चर्चा करते समय उसी कालखंड में लिखने वाले अन्य कहानीकारों की कहानियों के संदर्भ भी दिए गए हैं ताकि तुलनात्मक अध्ययन संभव हो सके।
डॉ. दइया ने वरिष्ठ कहानीकारों की कहानियों में जहां कहीं कमियां दर्शाई गई है वहीं इस बात पर भी पूरा ध्यान दिया गया है कि शालीनता व सम्मान में किसी प्रकार की कमी न रहे। संक्षेप में यह आलोचना पुस्तक एक अच्छी प्रमाणिक और उपयोगी संदर्भ पुस्तक है। मैं इसका हृदय से स्वागत करता हूं।
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पुस्तक : बिना हासलपाई ; लेखक : डॉ. नीरज दइया ; प्रकाशक : सर्जना, शिवबाड़ी रोड, बीकानेर ;
संस्करण : 2014 ; पृष्ठ संख्या : 160 ; मूल्य : 240/-
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२
सुकून देती नीरज दइया की कविताएं -विजय शंकर आचार्य
उचटी हुई नींद के बाद/ जब लगती है आंख/ अटकी रहती हो तुम/ भीतर-बाहर/ जैसे नींद में/ जागते हुए।/ नहीं चलता मेरा कोई बस। मैं नहीं जान ही पाया- कब उचटी नींद/ कब लगी आंख!
नींद का उचटना सामान्य आदमी के लिए साधारण घटना हो सकती है। संवेदनशील मन इस नींद के उचटने को बहुत अलग ढंग से समझता है और अभिव्यक्त करता है। उचटी हुई नींद कवि, आलोचक डॉ. नीरज दइया का प्रथम हिंदी काव्य संग्रह है। इस दौर में जब कहा जा रहा है कि कविता का युग समाप्त हो चुका है नीरज की कविताएं कुछ हौसला देती नजर आती हैं। साठ कविताओं के इस संग्रह में अंतिम तीन कविताओं में प्रायोगिक रूप में तीन गद्य कविताओं को भी स्थान दिया है।
नीरज की कविताओं से गुजरते हुए लगता है उनका अपना एक संसार है जो केवल ऐसा सपना भर नहीं जो सिर्फ देख कर भूला जा सके। संग्रह ‘एक सपना’ कविता से प्रारम्भ होता जहां कवि कह देता है- किसी भी उडान के लिए/ एक आंख चाहिए/ और चाहिए, आंख में/ एक सूर्यदर्शी सपना। इस युग में जब चारों ओर सपनों के सौदागर बाजीगरी से सपनों को बेचकर मुनाफाखोर बने हुए हैं। ऐसे में जब सपनों पर पहरे बैठाएं जा रहे हों। ऐसे में जब सपने दिखाकर, सपनों को तोड़ा जा रहा हो तब डॉ. दइया के ‘कुछ सपने और’ आशा जगाते हुए आह्वान करते नजर आते हैं- घुट-घुट कर मरने से बेहतर हैं जिए कुछ देर और... / भूल जाएं सब कुछ, चले कुछ आगे और..../ किसी आकाश का बनकर बादल बरसें कुछ देर और.../ आंसुओं को पोछ कर चुनें जिंदा कुछ सपने और....
किसी भी रचना का पाठ करते हुए यदि पाठक अपनी संवेदनाओं में गमन करते हुए कवि की संवेदनाओं का हमसफर बन जाए तो रचना की सफलता ही कही जा सकती है। इस संग्रह को पढ़ते हुए यदि पाठक के साथ ऐसा होता है कोई अतिश्योक्ति नहिं है। इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए पाठक उनके साथ बतियाने लगता है। वह प्रेम के लोक में विचरण करने लगता है और प्रेममय हो जाता है। खोखली होती जिन्दगी में प्रेम के मरने के इस दौर में जब पाठक अपनी खोखली हंसी के बीच डॉ. दइया की ‘खोखली हंसी’ में प्रवेश करता है उसे अपने अंतस तक पैठे खोखलेपन से दो-चार होना पड़ता है- प्रेम के बिना/ नहीं खिलते फूल/ कुछ भी नहीं खिलता/ ... जो खिलता हुआ उसके पीछे प्रेम है/ जहां नहीं प्रेम/ वहां सुनता हूं- खोखली हंसी।
इस भयावह, क्रूर उठापटक वाले स्वार्थपरक युग में जब प्रेम ‘ढूंढते रह जाओगे’ की सीमा तक आ चुका है। ऐसे जलते उबलते परिवेश में कवि का प्रेम को ढूंढना और उसे बचाए रखने की जद्दोजहद में अपनी नींद को उचटा देना साधारण प्रेम के बूते की बात नहीं है। इन कविताओं को प्रेम कविता कहना शायद इसलिए उचित नहीं होगा क्योंकि बदलते युग में प्रेम के मायने बदल गए हैं। नीरज की कविताओं के प्रेम में जमाने की हवा की स्थूलता नहीं है एक गहराई जिसे जानने के लिए अनुभूति के गहनतम अंतस तक पैठना जरूरी हो जाता है।
आज के इस युग में जब मानवीयता सिर्फ समाचारों की सुर्खियां बटोरने के लिए सप्रयास की जाती है, जब हमारी स्मृतियों को खत्म करने के लिए साजिशें की जा रही हैं। ऐसे में कवि अपनी स्मृति को सहेज कर रखना चाहता है और कह देता है तुम्हारी स्मृति में हैं/ कई गीत/ उन में से चुनकर एक/ गा रही हो तुम/ कहा तुमने/ आवाज पर मत जाना/ स्मृति पर जाना/ क्या गीत के सहारे/ पहुंच सकूंगा मैं/ तुम्हारी स्मृति तक?
सामान्यतः लोग अपने संग्रह का शीर्षक संग्रह में प्रकाशित किसी एक कविता के शीर्षक को रख देते हैं। लेकिन डॉ. नीरज ने यहां एक प्रयोग किया है। उनके कविता संग्रह में ‘उचटी हुई नींद’ नाम की कविता नहीं है। लेकिन कवि का गद्य कविता का प्रयोग कम असरकारक रहा। गद्य कविताएं पहले की कविताओं की तुलना में कम प्रभाव छोड़ती हैं।
कुल मिलाकर नीरज की कविता दैहिक और आलोकिक प्रेम की उस सीमा पर खड़ी है जहां पाठक अपनी अन्तरावस्था से जहां भी पहुंचना चाहे वहां जा सकता है। इन कविताओं की खास बात इनका सीधापन है। इनमें लय है जो पाठक को कविता दर कविता आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। डॉ. नीरज की कहीं कृत्रिमता नजर नहीं आती। आज के इस कृत्रिम युग में कविताएं सुकून देती हैं।
०
संयुक्त निदेशक (कार्मिक)
माध्यमिक शिक्षा राजस्थान, बीकानेर
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उचटी हुई नींद (कविता संग्रह) ; कवि - डॉ. नीरज दइया
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर ; संस्करण : 2013 ; पृष्ठ संख्या : 80 ; मूल्य : 60/-
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Saturday 31 October 2015
शतदल (बोधि प्रकाशन) के ( ल,म,न वर्ण) के कवि और उनकी कविताओं का अंतर्पाठ -४ - निवेदिता भावसर
मित्रो! पाठकनामा में आज प्रस्तुत है हमारे समय के महत्त्वपूर्ण वरिष्ठ कवि, आलोचक व चित्रकार विजेन्द्र जी द्वारा सम्पादित बोधि प्रकाशन,
जयपुर से प्रकाशित समकालीन सौ कवियों की प्रतिनिधि कविताओं के संकलन ’शतदल’ का युवा कवयित्री व समीक्षक निवेदिता भावसर द्वारा ’शतदल’ के पहले वर्ण के कवियों की कविताओं पर समीक्षात्मक आलेखों के अंतर्पाठ श्रंखला की चौथी कड़ी....
शतदल (बोधि प्रकाशन) के ( ल,म,न वर्ण) के कवि और उनकी कविताओं का अंतर्पाठ -४ - निवेदिता भावसर
लालित्य ललित
कविता कहे, पढे या सुने जाने में भले ही विशिष्ट होती है पर कवि के लिए कविता उस हर जगह है जो बेहद आम है,, सामान्य है और विशिष्टता के दंभ से मुक्त है। कविता हमारे कितने आसपास रहती है और हम उससे बेखबर रहते हैं। लालित्य ललित जी की कविताएं पढ़कर यह सहज ही समझ आ जाता है कि जीवन में हर कदम पर कविता का वास है
बस जरा सा ढूंढने और दृष्टि को सूक्ष्म बनाने की जरुरत है।
जी हाँ हमारे आज के शतदल के इक्तालीसवे कवि हैं श्री लालित्य ललित जी। इनकी कवितायेँ इनके स्वभाव सी ही सरल हैं। जो भी पढ़ता है लालित्यमय हो ही जाता है।
शतदल में शामिल इनकी कवितायेँ , "इसके बिना भी" और "जानना ज़रूरी था " बहुत ही निजी से अहसासों को बयां करती, बहुत ही कोमल, जज़्बातों के धागे से बुनी गयी लगती हैं।
सच शतदल में अब कवितायेँ अपने नए नए तेवर लिए आ रही हैं। इनकी कविताओं में गजब की सहजता है। इतनी सादगी है इनमे कि इनको अपने शब्द देना भी ऐसा लगता है जैसे कहीं मैली न हो जाये। क्यूंकि कवि ने अपने सारे जज़्बात जैसे थे वैसे के वैसे ही रख दिए हैं। और उनमे अपने रंग भरने में मुझे डर सा लग रहा है।
आइये पढ़ते हैं इनकी कविता "इसके बिना भी "का ये हिस्सा -
"तुम न समझो कुछ भी
किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा
जब है तो बदल डालो
कमरे का बल्ब और मिचमिचाती ट्यूब लाइट
अरसा हुआ इसे ऐसे ही देख रहा हूँ
कुनमुनाते हुए सुबकते हुए
जैसे वर्षों से यह ऐसी ही हो
क्या तुम को भाती है इसकी रौशनी
जिसकी उम्र सेवानिवृत्ति के बाद भी
आफत में कड़ी है
आज भी रोटी बनाने की उम्र में
लड़कियां मैदा से बने नूडल्स खाने पर तुली हैं
मायके जाने को बेताब घरवळियां
इस कदर उत्साहित हैं
की चाहे कुछ भी हो
कुछ दिन तो दूर रहेंगी तीमारदारी से
नहीं तो यही सब सुनना पड़ता है
अजी सुनो एक प्याला और बनाना चाय
कसम से तुम्हारे हाथ में तो जादू है
मेरा तौलिया कहाँ है
मेरा बटुआ कहाँ हैं
सारिका कहा हों
मधुलिका कहाँ हो
खाना बनाया या केन्टीन से ले लूँ
इन्हे भी तो पता चले क्या कीमत है घर वालियों की
इस अहसास में गुज़र जाती है ज़िन्दगानियां
और फिर हँसते बोलते लोग भी छोड़ जाते हैं
अपनी देह अपने शब्द और अपनी यादे
तस्बीरों से बतियाना पड़ता है कई बार
साथ बिछुड़ने का दुःख बहुत सालता है"
सच कहा सर आपने , "साथ बिछुड़ने का दुःख बड़ा सालता है "
ज़िन्दगी का एक बड़ा हिस्सा यूँही हँसते बोलते लड़ते झगड़ते , शिकायते करते , गुज़र जाता है , कई दफा घबरा जाता है मन एक दूसरे से ही। कई बार सोचती हूँ , जो लोग एक जनम सही से नहीं रह पाते एक साथ , वो सात जन्मो तक के साथ के लिए कैसे व्रत रख लेते हैं। कमरे का बल्ब और ट्यूबलाइट तो खैर बदल ही जाते हैं , एक वक़्त के बाद , लेकिन किसी इंसान को अपनी ज़िन्दगी से उनकी तरह थोड़ी बदला जा सकता है। कितने जज़्बात जुड़े होते हैं , बड़े बुज़ुर्गों का टोकना अखरता है " कि रोटियां बनाने की उम्र में लड़कियां नूडल्स खाने पर तुली हैं " मगर याद भी आता है की यही लोग थे जो हमारे हर नाज़ नखरे उठा लिया करते थे। बिना उफ़ किये। हमारे आगे पीछे फिरा करते थे।
हाँ ये सच है कि सुबह सुबह की रोज़ रोज़ की इस भगमभागी में औरतें किसी रोबोट की तरह "मेरा तौलिया कहाँ है , मेरा बटुआ कहाँ है , खाना बना या नहीं , चाय का क्या हुआ जैसे आदेशों का पालन करती रहती हैं। चिढ़ती हैं , कुड़कुड़ाती हैं , मगर यही बातें उन्हें एक आतंरिक सुख भी देती हैं, वे ज़िन्दगी भर इसी अहसास के साथ जी लेती हैं की कोई तो है जिसे उनकी ज़रूरत है , की अगर वो न हो तो पत्ता तक ना हिले।
ज़िन्दगी कभी किसी के बिना नहीं रूकती , जीने वाले जीते ही हैं। मगर कैसे जीते हैं ये वही जानते हैं। फिर चाहे वो हमसफ़र हो या फिर कोई बेहद अपना साथी। रिश्ते उम्र के साथ खत्म नहीं होते। हाँ मगर शायद उनके याद करने वालो के साथ चले जाते हैं। क्यूंकि पीढ़ियों तक दीवालों पर तंगी तस्वीरें बस तस्वीर ही बनी रह जाती है। उसमे फिर वो रिश्ता वो , दर्द , महसूस नहीं हो पाता। क्यूंकि उस दर्द को महसूस करने वाली आँखे भी बंद हो चुकी होती हैं
सच लालित्य जी एक बहुत ही भावुक सी कविता है ये। सामान्य सी सरल सी शब्दावली में आपने सच में जादू सा भर दिया है। मन तो कह रहा आपसे कह दूँ " कसम से आपके शब्दों में तो जादू है , एक कविता और लिख दीजिये न सर "
पता नहीं इतनी प्यारी कविता को मैं सही से कह पायी के नहीं। पर यकीन मानिए इस कविता को मैंने पूरी तरह से महसूस किया है।
चलिए इस खुमारी से निकलते हुए अगली कविता की और चलते हैं। हालांकि नशा उतरना तो नहीं है , हाँ मगर स्वाद नया मिल जायेगा।
ज़िन्दगी के उतार चढ़ावों को बयान करती ये कविता भी , एक दूसरे को समझने की , और समझौतों की समझाईश देती है। हालाँकि ये भी सच है की हम समझौते भी तभी करते हैं जब हमारे मन में प्रेम होता है। उस प्रेम को बचाये रखने के लिए ही हम अपने जीने के तरीके तक बदल लेते हैं। बस प्यार बना रहना चाहिए , बाकी तो क्या है , हर चीज़ का प्रतिस्थापन मौजूद ही रहता है , हमारा भी आपका भी।
आइये पढ़ते हैं ये प्यारी सी कविता -
"कुछ छुटपुट बातों से
जिंदगी की पटरी कभी भी डगमगाती नहीं
कभी भी यदि पटरी से गाडी उतरी हो
तो यह नहीं मान लेना चाहिए
कि गाड़ी का चालक नशे में था
या उसे नींद लग गयी थी"
कोई और वजह भी हो सकती है"
कितनी प्यारी बात कही है सर जी अपने। .... ज़रूरी नहीं की आपको यदि आपका हमसफ़र ज़रा बदला सा लगे तो वो किसी और खुमार में है , हो सकता है उसकी वजह आप ही हो , क्या पता वो भी आपके लिए यही महसूस कर रहा हो जो आप उसके लिए सोचते हो। क्या पता वो बस आपको बस जताना चाहता हो की उसे भी फर्क पड़ता है आपकी बेरुखी से।
" ऐसे ही कारण रिश्तों में होते हैं
जिन्हे बहुत सावधानी से सम्भालना पड़ता है
कभी सम्बन्धो की गाड़ी भी पटरी से उतर चुकेगी
बहुत मजबूती से निभाना पड़ता है यह धर्म
यह घर तिनके तिनके से बसाना पड़ता है
आंधी अंधड़ से बारिश तूफान से आदि नहीं संभाला
तो कभी भी ढह सकता है
और एक बार जो ढहा
फिर वह बात नहीं आती
जो पहले थी सम्बन्धो में सरोकारों में "
सच हम दुनिया भर की फ़िक्र में लगे रहते हैं , हर चीज़ का रिप्लेसमेंट पहले ही तलाश करके रख लेते हैं , ये नहीं तो ये सही , नहीं तो इससे तो पक्का काम चल ही जायेगा। ये गाडी चार साल तो चल ही जाएगी , फिर नयी ले लेंगे , ये मोबाइल बदलना है , ये कपडे सही नहीं है , इस दोस्त से मिलना है, उस दोस्त को वो गिफ्ट देना है , ................ मगर भूल जाते हैं की घर में भी कोई सदस्य है , इन गाड़ी , मोबाइल बिज़नेस दोस्तों सहेलियों से परे , जिससे ज़िन्दगी भर का नाता जोड़े बैठे हैं , जो हमारी हर तरक्की हमारे हर संघर्ष में कहीं न कहीं शामिल है।
क्या पता किसी दिन हमारे पास दुनिया भर की चीज़े हो और वो न हो। क्या पता जब अकेलापन हमें जकड ले और वो चुप्पी साधे बैठा रहे। और क्या पता हम उसकी चुप्पी के भी मोहताज हो जाएँ। …
नहीं नहीं.......... उफ़ ........... सच कहा आपने बहुत ज़रूरी है अपने घर को आंधी , अंधड़ तूफानों से बचाना।
"बहुत अरसा हुआ कहीं बाहर नहीं गए
ऐसा करते हैं कसी पहाड़ पर चलते हैं अब चाहे वो मसूरी हो
शिमला हो या फिर मनाली
मुझे तो सब पहाड़ एक से ही लगते हैं
क्या चाय आज ज़्यादा उबाल दी है
पत्ती के साथ संग राखी
प्याज या धनिये की महक भी आ रही है
तुम्हारे नाक बहुत तेज है
क्या से क्या सूंघ लेते हो
हाँ यह तो है कुछ और बताऊँ क्या
हंसी का छल्ला हवा में तैर गया
सम्बन्धो की मिठास फिर से महका गयी होले से"
आह कितना प्यारा लगता है ना ये साथ , कितना सुखमय लगता है , ये नोक झोक , ये प्यार भरी छेड़ छाड़।
वो एक शेर है न। …………
"हमसफ़र चाहिए हुजूम नहीं
इक मुसाफिर भी काफिला है मुझे "
क्यूंकि किसी मुसाफिर से आप इतने हक़ से यह नहीं कह सकते मेरा तौलिया लाना , मेरा बटुआ कहाँ है , या फिर -
" कसम से तुम्हारे हाथो में तो जादू है , एक कप चाय और बनाना प्लीज )
सच सर जी मज़ा आ गया पढ़ कर। बहुत ही खूबसूरत सी मासूम सी लिखाई है आपकी। ईश्वर आपमे आपकी लिखाई में और आपके संबंधों में यही मिठास बनाये रखे। यही कामना है।
ममता व्यास
जाने कितने लोग ऐसे मिलेंगे आपको जो इसी दम्भ में रहते हैं कि वो कवि हैं , लेखक हैं , साहित्यकार हैं। मगर असल में वो बस एक अभिनेता ही हैं , जो ढोंग करते रहते हैं कवि होने का। कई बार मैं भी खुद को इन्ही लोगों में पाती हूँ। जब तक मुझमे वो अभिनेता मौजूद रहता है , मेरे अंदर का कवि मर जाता है।
फेसबुक पर कुछ दिन पहले प्रशांत दा (प्रशांत विप्लवी ) का एक स्टेटस पढ़ा था , स्वार्थ सिर्फ स्वाद का है -अपनी कविताओं से बाहर निकलिए तो आपको सचमुच बहुत बेहतरीन कविताएँ पढने को मिलेगी )
सच , जाने कितना कुछ है पढ़ने को सुनने को ,देखने को , समझने को , बस आईने से आँखे हटाने की देर है।
मगर आज मैं आपको ऐसी कवयित्री से मिलाउंगी जो चुपके चुपके अपने घर के कामों से निपटकर ,कविताओं के खजाने को चोरी चोरी पढ़ती रहती हैं , सुनती रहती हैं , देखती रहती हैं , सीखती रहती हैं , और लिख भी लेती हैं , कभी गृहस्थी का हिसाब करते करते हुए , तो कभी बच्चों को होमवर्क कराते कराते , कभी रोटियों को फुलाते हुए तो कभी , साबुन के झाग उड़ाते हुए।
इस कविपने के दम्भ से दूर , मगर कवियों के बीच मौजूद रहती हैं यें। बड़ी छुपी रुस्तम हैं। तो आइये आज उन्हें पकड़ ही लें। बहुत छुपा छुपी खेलती हैं ये सबसे।
हांजी आज की हमारी शतदल की बयालीसवी , बड़ी ही प्यारी सी कवयित्री हैं (जो कहती हैं मुझे कवियत्री न कहो ) श्रीमती ममता व्यास जी।
ममता दी खुद को कवि मानने में झिझकती हैं , उनका मानना है कि वो एक घरेलु महिला हैं , मगर उनकी कवितायें तो कुछ और ही कहती हैं आइये देखें तो -
"वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम
लेकिन उसे आता है रिश्तों को गढ़ना और पकाना
घर की दरारों में कब भरनी है चुपके से भरावन
जानती है वह
तुम कविता के लिए बहाने तलाशते हो
वो किसी भी बहाने से रच लेती है कविता
तुम शोर मचाते हो एक कविता लिखकर
वो ज़िन्दगी लिख कर भी खामोश है
रातभर जागकर जब तुम इतरा रहे होते हो किसी एक कविता के जन्म पर
वो सारी रात, दिनभर लिखी कविताओं का हिसाब करती है
कितनी कवितायेँ सब्जी के साथ कट गयीं
कितनी ही प्याज के बहाने बह गयी
और कितनी ही कवितायें सो गयीं तकिये से चिपक कर
कढ़ाई में कभी हलवा नहीं जला जलती रही कविता धीरे धीरे
जैसे दूध के साथ उफन गए कितने अहसास भीगे से
हर दिन आँखों से बहकर गालों पे बनती
और होठों के किनारे पर दम तोड़ती है कविता
तुम इसे जादू कहोगे, हाँ सही है क्यूंकि यह इस पल है
अगले पल नहीं होगी अभी चमकी है अगले पल भस्म होगी
रात के बचे खाने से सुबह व्यंजन बनाना
पिछली रात के दर्द से नयी कविता बना लेना आता है उसे
और तुम कहते हो उस घरेलु स्त्री को कविता समझ नहीं। "
उफ़ अब क्या कहूँ। देखो ममता दी आपकी कवितायेँ ही कह रही हैं , मैं तो कुछ नहीं कह रही।
ये आपका अपने घरेलु होने से लगाव ही है जो आपकी कविताओं को महका रहा है। सच ये शब्द ये भाव वो ही रच सकता है जो इन्हे जीता है। आप वो लिखती हैं जो जीती हैं। आप आपकी कविताओं में घुली हुई हैं।
"पिछली रात के दर्द से नयी कविता बना लेना आता है उसे
और तुम कहते हो उस घरेलु स्त्री को कविता समझ नहीं। "
जाने किसने कविताओं को भी नियम कानून कायदों में बाँध दिया है। कविता तो वो है जिसे दिल से चाहा जाए , महसूस किया जाए। हर वो काम जिससे आप प्यार करो आपके लिए एक कविता सा खूबसूरत है । फिर चाहे वो बेलन चलाना हो या बोर्डर पर बन्दूक चलाना।
एक स्त्री जो अपनी ज़िमीदारियों को बोझ नहीं समझती, भलीभांति जानती है कम शब्दों में लिखी कविता की तरह ज़रा में भरपूर गुज़ारा करना ।
"रात के बचे खाने से सुबह व्यंजन बनाना
पिछली रात के दर्द से नयी कविता बना लेना आता है उसे"
हम जाने क्यूँ घरेलु होने को कम आंकते हैं ? जबकि आपकी दिनचर्या पूरी तरह से एक घरेलु महिला पर ही निर्भर है। एक शेर है ना बद्र साब का-
ऐसा तुम्हे चाहत का समंदर ना मिलेगा
घर छोड़ के मत जाओ कहीं घर ना मिलेगा।
चलिए आपको इनकी लिखी एक और कविता पढ़ाती हूँ -प्रेम
इस कविता के कई सारे छोटे छोटे हिस्से हैं। और ये सभी उस दम्भी कवि को लताड़ते हैं जो सिर्फ प्रेम को लिखना जानता है , करना नहीं।
1) जब व्यस्त थे तुम प्रेम ग्रन्थ लिखने में
तुम्हारे दरवाज़ों पर बार बार दस्तक दे रहा था प्रेम
तुम शब्द शब्द लिख रहे थे और वह सांस सांस सिसकता था दहलीजों पर।
उफ़ क्या कहूँ। ....... हाँ सच, कई दफा हम जाने किस मृग मरीचिका की मे भटकते फिरते हैं जबकि वो हममे मौजूद रह हमारी राह तकता है।
२) प्रेमग्रंथ एक दिन पुरस्कार पाते हैं और फिर दीमक उन्हें बुरादा कर देती है
प्रेम कोई पुरस्कार नहीं पाता
उस पर दीमक घर बनाती है और वो बाम्बी के भीतर भी सांस लेता है।
उफ़ कितनी प्यारी बात , सच ये एक घरेलु स्त्री ही कह सकती है। क्यूंकि वो जानती है इतनी गहराई तक प्रेम करना।
३) चेतावनी के बावजूद सिगरेट नहीं छूटती , बिना चेतावनी बिन हानि के प्रेम छूट जाता है।
……………………… क्या कोई जवाब होगा।
४) "मेरी देह में प्रेम ऐसे ही बहता है जैसे हरे पेड़ में क्लोरोफिल और तुम्हारी देह में निकोटिन"
उफ्फ्फ काश के क्लोरोफिल से निकोटिन को बदला जा सकता। या काश प्रेम ही निकोटिन सा हो जाता , एक आदत की तरह।
५)" चुपके से आता है प्रेम कैंसर की तरह
एक छोटी सी गांठ से शुरू होकर धीरे धीरे फ़ैल जाता है पूरी देह में
फिर हर कीमोथेरपी पर एक आस ऐसी उठती है
जैसे डाकिया कोई खत लाया हो"
आआह ............. ये इस कविता का मेरा सबसे पसंदीदा हिस्सा है। वैसे सच प्रेम की कैंसर से तुलना बहुत सही है। असल प्रेम होता ही ऐसा है। प्रेम के भी कई रूप है। एक प्रेम सहानुभूति है , एक प्रेम दया है , और एक प्रेम प्रेम है। सो फीसदी शुद्ध। सूफियाना। जिसमे जो भी मिला प्रेममय हो गया। जहां कौन मैं और कौन तू का भेद ही गया हो। वो आज बस शाब्दिक हो कर ही रह गया है।
ममता व्यास जी की दो कवितायेँ और शामिल हैं शब्दवती और मन समझते हैं आप ?
ये भी बड़ी ही भावुक कवितायेँ हैं।
आपको शब्दवती का एक हिस्सा सुनाती हूँ -
"तुमने मुझे शब्दवती छोड़ा था मैंने अकेले तुम्हारी संतानो को जन्म दिया
पाला पोसा और सहेजा, देखो तुमसे ही दिखती है तुम्हारी पुत्री पीड़ा
जो जन्म से ही गूंगी है
और ये तुम्हारा पुत्र प्रेम
बिलकुल तुम पर गया है
तुनकमिजाज बात बात पर रूठना
सताना और फिर मुस्कुराना "
आह कितनी प्यारी है हैना। चंद शब्दों में कितनी गहरी बात कह दी अपने। जिससे प्रेम पाया उसी से पीड़ा। और दोनों को ही एक सा अपनाया। दोनों से प्रेम किया। पीड़ा से भी उतना ही लगाव रखा जितना प्रेम से। क्या इन पंक्तियों का , इनमे छुपे जज़्बातों का कहीं कोई जवाब होगा। ये एक स्त्री है जो प्रेम करती है , पीड़ा सहती है। और फिर पीड़ा को भी प्रेम सा सहेजती है।
पढ़िए इनकी कविता मन समझते हैं आप का ये हिस्सा -
"यकीनन वो स्त्री नहीं थी
सिर्फ और सिर्फ मन थी
मन से बनी, मन से जनी
मन से गढ़ी और मन से बढ़ी। "
धीरे धीरे उसका मन बीत गया
जैसे कोई मीठा कुआ रीत गया
वो राह तकती है कोई आता होगा
सतह में एक मुट्ठी मन की मिट्ठी लाता होगा
वो अब भी मुस्कुराती है कहती है
ओह मन नहीं समझते ना आप"
उफ़ दी सच बहुत ही खूबसूरत लिखा है अपने। मैं नहीं कहूँगी आप कवि हो। आप सही माने में एक घरेलु स्त्री हो। जो अपने घर के काम भी ऐसे करती है जैसे कोई कविता रच रही हो। उसकी कवितायेँ भी उसकी हाथ के बने हलवे सी ही होती है। मीठी और स्वादिष्ट।
ईश्वर आपके हाथों का ये जादुई हुनर बनाये रखे।
मणि मोहन मेहता
सावन के अंधे को हरा ही हरा दीखता है।
थोथा चना बाजे घणा
फिर वही मुर्गे की एक टांग
लो फसल पकी नहीं काटने आ गए।
अरे नहीं हमारे आज के कवि कहावतें नहीं लिखते हैं , कवितायें ही लिखते हैं। बस उनकी लिखाई का अंदाज़ इन कहावतों जैसा ही होता है। ज़रा शब्दों में बात को दिल तक पहुंचा देते हैं।
वो होता हैना कई बार बात कही भी नहीं जाती और हम समझा दी जाती है।
ये हुनर समझने वाले का नहीं , समझाने वाले का होता है। वर्ना शब्द तो फेंके हुए पांसे हैं , क्या जाने क्या अर्थ निकल आये।
मगर कविताओं का असली जुवारी वही जिसका शब्द और अर्थ दोनों पर गहरा कसाव हो।
जी हाँ ऐसे ही है हमारे शतदल के तिरयालीसवे कवि श्री मणि मोहन मेहता जी।
छोटी छोटी कविताओं में गहरी बात कह जाते हैं। इनका परिचय मैं क्या दूँ , जग जाहिर है। हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा वागीश्वरी पुरस्कार से सम्मानित श्री मणि मोहन जी की देश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कवितायेँ प्रकाशित हो चुकी हैं। कई काव्य संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। तथा ये कई भाषाओँ पर अपनी मजबूत पकड़ रखते हैं। ये गंज बसोदा मध्य प्रदेश के रहने वाले हैं व शासकीय महाविद्यालय में अंगेजी के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत हैं।
इनकी शतदल में छपी तीनो कवितायें , रौशनी , बाज़ार और अपनी भाषा , तीनो ही मेरी पसंदीदा है।
चलिए पढ़ते हैं इनकी पहली कविता रौशनी -
"इस रोशनी में थोडा सा हिस्सा उसका भी है
जिसने चाक पर गीली मिटटी रखकर आकार दिया है इस दीपक को
इस रौशनी में उसका भी हिस्सा है जिसने उगाया है कपास तुम्हारी बाती के लिए।
थोडा सा हिस्सा उसका भी है जिसके पसीने से बना है तेल।
इस रौशनी में थोडा सा हिस्सा उस अँधेरे का भी है
जो दिए के नीचे पसरा है चुपचाप"
उफ़ कितनी प्यारी कविता है। समानता की बात करती हुई। क्यूंकि अक्सर नीव के पत्थर को ईमारत बनने के बाद नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। भूल जाते हैं उन हाथों को जिन्होंने उन्नति के पथ से कांटे निकाले हैं। सच कहा आपने रौशनी पर सबका बराबर अधिकार है , मगर ये अधिकार अक्सर खरीद लिया जाता है। और कई बार अधिकार जन्म से ही बंधुआ बन चूका होता है। कुछ हाथ ,ज़िन्दगी भर गन्दगी ढोने के लिए ही अभिशप्त हो कर रह जाते हैं। वे अधिकार का "अ" भी नहीं जानते, लेकिन उसके दर्द को अपनी पीठ पर ताउम्र महसूस करते हैं।
एक कहावत याद आ गयी सर जी - जिसकी लाठी उसी की भैस।
ये आज का दौर है यहां समानता की सिर्फ बातें होती है , समानता कहीं नहीं होती।
मगर ये भी सच है , दीये जलाने वाले हाथ मशाले जलाना भी जानते हैं। कपास उगाने वाले हाथ हथियार उठाना भी जानते हैं। दौर बदलते हैं , वक़्त बदलता है , कहावतें बदलती हैं , क्रांति आती है और बदल जाती है दुनिया । बस ज़रा ज़ुल्म के आगे आँख उठाने भर की देर है।
इनकी अगली कविता बाजार ………… यह भी एक बहुत उम्दा कविता है। ये उस इंसान की घुटन को कहती है जो उम्र भर अपने सपने तलाशता रहा। कहीं वो मिले भी तो कई समझौतों के साथ मिले। यही तो बाजार है , बिना कुछ लिए कुछ नहीं देता। यहां हर चीज़ की कीमत होती है। सपनो की भी।
"पैर नहीं थकते आँखे थक जाती हैं इस बाज़ार में
बच्चे की तरह उंगली पकड़कर साथ चलते हैं सपने
और फिर गुम हो जाते हैं रंग बिरंगी खुशबूदार भीड़ में।
मैं सपने तलाशता हूँ इस बाज़ार में और फिर पैर भी थक जाते हैं"
कितना बड़ा कटु सत्य है ये , सच ये बाजार की चकाचौंध , जहां नीयत बदलते देर नहीं लगती वहां सपनो का बदल जाना , कौन बड़ी बात है। और जो नहीं बदलते उन्हें नज़रों से ही गायब कर दिया जाता है।
नकली दुनिया की असलियत अक्सर खोखली ही साबित होती है। और खोकली ज़मीन पर कभी पांव नहीं टिकते।
इनकी एक कविता और है "अपनी भाषा" ये भी मुझे बहुत अच्छी लगी। सामान्य सी बात कहती छोटी सी कविता , मगर कई सवाल छोड़ जाती है ज़ेहन में। "अपनी भाषा " हमारी भाषा। जो जन्म से हमें मिली संस्कारों सी।
"उदास हुए हम अपनी भाषा में
मुस्कुराए खिलखिलाए अपने भाषा में
प्रेमपत्र लिखे, लिखी कवितायें
धड़कते रहे दिल अपनी भाषा में
उत्सवों में रात भर नाचती रही हमारी भाषा
भाषा में मदमस्त हुए हमारे उत्सव
प्रार्थनाओं में गूंजती रही हमारी भाषा
भाषा में गूंजती रही प्रार्थनाएं
सुख दुःख बहते रहते हैं दीप बनकर
भाषा की नदी में दूर तक। ....... "
हमने हमारे सारे अहसास अपनी भाषा में एक दूसरे से बांटे। हमारी खुशियां , हमारे दुःख , हमारे सुख , सभी। यहाँ तक की हमारे सपने भी हमने हमारी भाषा में देखे।
हमारी भाषा ने हमें तरक्की दी , सुकून दिया , एक वजूद दिया , नाम दिया। मगर हमने इसे क्या दिया।
हमने कई बार अपनी भाषा में बात करने में शर्मिंदगी महसूस की। हमने अपने तौर तरीको में अंग्रेजी भाषा को अपनाने में अपनी शान समझी।
दूसरी भाषा सीखना उसका इस्तेमाल करना गलत नहीं है। गलत है अपनी भाषा को नज़रअंदाज़ करना।
जब हमारे सपनो की भाषा हिंदी है , हमारे अपनों की भाषा हिंदी है तो हमारे बोलने की भाषा हिंदी क्यों नहीं।
यह आपकी अपनी भाषा है। आपकी आत्मा की भाषा है। हिंदी से झिझकिये मत , प्यार कीजिये।
"सुख दुःख बहते रहते हैं दीप बनकर
भाषा की नदी में दूर तक। ....... "
मणि मोहन सर जी सच आपकी कविताओं का ये अंदाज़ मुझे बहुत ही अच्छा लगा। बिलकुल वैसा जैसे की वो कहावत है न " सांप भी मर जाए , और लाठी भी न टूटे।
ईश्वर करे आप यूँही लिखते रहें। बहुत तरक्की पाएं। आपका शब्द भण्डार कभी ख़त्म न हो। आप नए नए शब्द रचे। नए नए भाव रचे। और सफलता आपके कदम चूमे।
मनीषा कुलक्ष्रेष्ठ
हमारे देश में दो ही चीज़ों का भरपूर इस्तेमाल किया जाता है, एक तो भगवान् दूसरी स्त्री। दोनों ही हमारे देश में पूजनीय हैं। और दोनों की हालत शोचनीय है। दोनों को हर कोई मानता है , लेकिन सुनता उन्हें कोई नहीं।
कुछ ऐसे ही भावों को कुरेदती हैं हमारे शतदल की चंवालीसवी कवियत्री मनीषा कुलक्ष्रेष्ठ जी की कवितायेँ काली , अ- निषिद्ध , वे सारे और माँ।
इनकी चारो कवितायें ही उम्दा स्तर की हैं। मगर मुझे सबसे ज्यादा जो पसंद आई वो है - वे सारे।
चलिए आपको भी पढ़ाती हूँ।
"वे सारी स्त्रियां जो स्त्रियां है
वो सारे पुरुष जो स्त्री हैं
साथ आते हैं दुःख में एक चिड़िया के भी
वे सारे पुरुष जो केवल पुरुष हैं
वो सारी स्त्रियां जिनमे पुरुष पहरेदार हैं
वे धारा के विपरीत तैरती मछलियों के
झुण्ड को दे सकते हैं ज़हर"
इस कविता को पढ़ते ही मुझे कुछ दिन पहले फेसबुक पर पढ़ा नित्यानंद गायन जी का एक स्टेटस याद आगया कुछ यूँ के दो मर्दों की लड़ाई या बहस में जब एक मर्द हारता हुआ दीखता है तो उस लड़ाई की बागडोर उस हारते हुए पुरुष की पत्नी या प्रेमिका अपना कर्तव्य समझ कर मोर्चा संभाल लेती हैं और वह मर्द परदे के पीछे छिप कर ...मजा लेता है।
इस कविता में पुरुष शब्द जहाँ अहंकार को दर्शाता है वहीँ स्त्री शब्द प्रेम , दया और सहानुभूति का प्रतीक है। हर पुरुष अहंकारी नहीं होता। उसमे कहीं ना कहीं एक स्त्री मौजूद रहती है। जिसके रहते वो महसूस कर पता है एक चिड़िया तक का दर्द भी । और हर वो स्त्री जो खुद के स्त्री होने को नकारती है और पुरुष प्रधान समाज से सम्मान की लालसा में उनके बनाये हर नियम को स्वीकार औरों पर थोपती है , एक ढाल की तरह होती है , जिसके पीछे अहंकार अपने पूरे दम ख़म के साथ पनपता है। जो नयेपन और नयी सोच को कभी स्वीकार नहीं करता।
हमारा देश वैसे भी धार्मिक देश है । यहाँ हर काम धर्म के आधार पर ही होता है। यहाँ तक की यहाँ की राजनीति का आधार भी धर्म ही है। कहते तो हैं की इश्वर एक है लेकिन आज जैसे जैसे आबादी बढ़ रही है इश्वर भी अपनी जनसँख्या बढ़ा रहा है। रोज़ एक नया धर्म उपजता है इश्वर जन्म लेता है। रीति रिवाज बनते हैं। और वो जो हममे आप में सबमे मौजूद है चुपचाप खड़ा तमाशा देखता है।
आइये पढ़ते हैं इनकी अगली कविता 'काली'
"बहुत सुनी है किंवदंतियां
चढ़ती है बलि और शराब
जोगी और सिद्ध
फहरती रही लाल पताका
तुम उदास बनी रही
तुम उन सबको उदास पहने रही
जिन्हे मैं जानती थी कि
जिन्हे समाज कहता था काली कल्ली काली माई
तुम उन अंधेरों को पहने रही
जिन अंधेरों में उबलता रहा गुस्सा खून भरे खप्पर में
और एक दिन सौंप कर मुझे मुझ को
उठा कर खून भरा खप्पर और कटार
अपनी उदास सांवली ताम्बई देह पर
भस्म मल चली गयी थी तुम
शव पर आरूढ़ विदा के पलों में भी
नहीं मुस्कुराई थी तुम
हाथ रखा था अपना सँवलाया सुर्ख
मेरी कोख पर और कुछ बुदबुदाई थी
आज याद कर रही हूँ तुम्हे श्यामा
अँधेरे में विधुतलता सी आँखे
अपनी ही कोख के भीतर उतरकर
याद करने की कोशिश कर रही हूँ वह मंत्र
और ढूंढ रही हूँ वह काली शिला
और वह अभिमंत्रित तलवार"
सच जन्मो से चली आ रही हैं ये बलि जैसी जाने कितनी कुप्रथाएँ। ईश्वर आखिर क्यों निर्बल की बलि से खुश होगा। अगर आप ये मानते हैं की आपमें ईश्वर मौजूद है , तो सच बताइये क्या किसी निरीह प्राणी को तड़पते देख आपका ह्रदय दुखता नहीं है। क्या ज़रा दया नहीं उमड़ती। अगर उस निरीह प्राणी की जगह आपका या आपके बच्चे का सर हो तो ??
हम भी अजीब हैं , छोटी छोटी कन्याओं को देवी का रूप मानते हैं , उन्हें पूजते हैं , लेकिन वही कन्या जब कोख में होती है तो उसे कुचल के मार देते हैं। हमने हमेशा स्त्री को देवी का रूप माना , और उसे पत्थर की तरह समझा। न उसके दर्द को महसूस किया न जज़्बातों को। हमने देवी के काले रूप को पूजा , और इसी रंग का तिरस्कार भी किया। क्यों ? क्यों हमने ये दोहरी मानसिकता अपनायी ?
जब तक ये दोहरी मानसिकता समाज में रहेगी , तब तक ऐसे कई सवाल उठते रहेंगे।
भावों से भरी मनीषा जी की कवितायेँ स्त्री के मन की परत दर परत खोलती हैं। इनकी अगली कविता "माँ " एक बेटी की अपनी माँ के प्रति जज़्बातों को व्यक्त करती है।
माँ के सबसे नज़दीक होती है बेटी। आज के ज़माने में भी वो भले बेटे से काम प्यार पाती हो लेकिन अपनी माँ एक स्त्री होने के नाते सबसे ज़्यादा वो ही समझ सकती है। उसका दर्द , उसका गुस्सा , उसकी चुप्पी , उसकी सहनशीलता सब वो अपनी आत्मा तक महसूस करती है। बेटी परायी माने जाने के बावजूद अपनी माँ की सबसे बड़ी ढांढस होती है।
मनीषा जी की एक छोटी सी कविता "माँ" उन्ही जज़्बातों को बिना कहे आँखों में ला देती है।
आइये पढ़ते हैं इनकी कविता –माँ
"यूँ तो माँ का जीवन किताब था
पन्ना दर पन्ना
मैं उन पन्नो की क्रम संख्या सी
उनके साथ साथ
फिर क्यों आज इसे पलटने से
बहुत पहले मन दर्द से पक जाता है
हो जाती है उंगलियां अशक्त"
आह। ……… बेहद प्यारी कविता। कितनी प्यारी बात कह दी अपने मनीषा जी
"मैं उन पन्नो की क्रम संख्या सी उनके साथ साथ"
सच ऐसी ही तो होती है बेटियां , माँ की छाया सी , हर कदम पर उसके साथ साथ।
इनकी अगली कविता "अ - निषिद्ध" भी बहुत खूबसूरत है। ज़िन्दगी को प्रकृति से जोड़ती हुई। प्रकृति शब्द ही इतना खूबसूरत है की मन में हरियाली सी छा जाती है। और फिर उसपर कविता लिख दी जाए तो कहना ही क्या। प्रकृति और कविता तो जैसे एक से शब्द हो गए हैं। कोई कवि खुदको प्रकृति की सुंदरता से दूर नहीं रख पाता। भले ही वो इसे किसी भी रंग में रंगे , लेकिन अपनी कविताओं में प्रकृति के रूप को उकेरता ज़रूर है। आइये मनीषा जी के रंग देखते हैं।
"इन जंगलों में रहकर
हम किसी विराट छायाएं बन गए हैं
हम जो थे निरे बौने प्रेत
बन गए हैं आदम और हव्वा
फिर से जीवन पानी पुलों के
नीचे बह चला है आधा आधा
निषिद्ध सेब नहीं
यहाँ उगते हैं जंगली अनन्नास
वो भी बहुतायत में भले ही
महकती है अब कस्तूरी कम कम
हमारी माँसलताओं में तृष्णा रह रह कर
जागती है अध्यात्म की नींद से
हम बैठते हैं चोंच मिलाये
विशालकाय पेड़ की ऊँची फुनगी पर
घोंसला छोड़ कर जा चुके चूज़ों की
पहली उड़ान में गिरे मुलायम पंख
चोंच में दबाये जंगलों की ये
बीतती छायाएं ये मनोरम उजाले
बहुत कम जरूरतें और बेफिक्री
लौटा लाये हैं
आदिमता को शहर धुंधला रहा है
स्मृतियों में ज्यों ज्यों बढ़ रही है ज़ेहन में
रौशनी आत्मा में
उतर आया है भोर का भोला उजास"
आह बेहद प्यारी कविता बेहद ही। सच कंक्रीट के जंगलों से निकल जब पेड़ पौधों के बीच निशांत सी जगह प्रकृति के करीब जाते हैं तो जो सुकून मिलता हैना वो अतुलनीय है।
कितनी खूबसूरती से मनीषा जी ने बचपन की दहलीज़ को पार करते नन्हे नन्हे परींदो जैसे बच्चों की उड़ानों को इन पंक्तियों में पिरो दिया देखिये
"घोंसला छोड़ कर जा चुके चूज़ों की
पहली उड़ान में गिरे मुलायम पंख"
और ये पंक्तियाँ-
महकती है अब कस्तूरी कम कम
हमारी माँसलताओं में तृष्णा रह रह कर
जागती है अध्यात्म की नींद से हम
सच प्रकृति सिर्फ अध्यात्म से ही नहीं जोडती , ज़िन्दगी को फिर से भरपूर जीने के भी नए मार्ग खोलती है। प्रकृति सिखाती है कम ज़रूरतों में भरपूर जीना। ये भागती दौद्तो सड़कों , ऊँची ऊँची बिल्डिंगों के बीच जहाँ इंसान का अस्तित्व बौना हो कर रह जाता है वहीँ पृकृति उसे एक नया आकाश देती है। फिर से जीने को एक नयी उड़ान भरने को।
सच मनीषा जी आपकी ये कविता पढ़ के ऐसा लग रहा है जैसे सारे बंधन खुल गए हों। और धूल धुआं मिट्टी सने शरीर पर मेघ खुल कर बरस गए हो। मनीषा जी आपकी कविताओं का ये सौंधापन यूँही बरकरार रहे। आप यूँही लिखती रहें ।
मनोज छाबड़ा
हम चाहे खुद के लिए लिखे या किसी सामाजिक विषय पर लिखे , वो हमारे ही मन का कहा होता है। हमारी अपनी सोच होती है जो दूसरों के दर्द से प्रभावित होकर कविताओं में , लेखों में बहती है। हमारा दर्द, जब औरों के लिए शब्दों में व्यक्त होता है तो उनके घाव पर मरहम का काम करता है। भले मरहम ना भी बन पाये , मगर एक सहानुभूति का स्पर्श ज़रूर दे जाता है।
ऐसे शब्द चाहे वो कविता ना भी बन पाये फिर भी किसी कविता से कमखूबसूरत नहीं होते।
और लोग कहते हैं की इन शब्दों में कविता कहाँ है ? मैं कहती हूँ हर शब्द एक कविता , हर वो चुप्पी , वो स्पर्श , वो अनकहा , अनबहा , आंसू एक कविता।
हमारे आज के शतदल के पेंतालीसवे कवि श्री मनोज छाबड़ा जी कविता नहीं रचते , भाव रचते हैं। बहुत ही संवेदनशील कवि हैं मनोज छाबड़ा जी। इनके दो काव्य संग्रह प्रकाशित हो गए हैं
'अभी शेष हैं इन्द्रधनुष' वाणी प्रकाशन, हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा सर्वश्रेष्ठ कृति-पुरस्कार भी प्राप्त हो छुपा है, व इनकी 'तंग दिनों की ख़ातिर' 2013, बोधि प्रकाशन, जयपुर द्वारा ही प्रकाशित हुई है। इनकी कई सारी अन्य कवितायेँ भी विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।
इनके बारे में आपको एक बात और बताऊँ , ये जितने ज़्यादा भावुक हैं ना , उतने ही मस्तमौला भी हैं। ये जितनी संवेदनशील कवितायेँ लिखते हैं , उतने ही हँसाते हुए कार्टून भी बनाते हैं। इनके ५००० से अधिक कार्टून प्रकाशित हो चुके हैं।
वैसे आज मैं आपको इनकी कवितायेँ ही सुनाने वाली हूँ , मौका मिला तो किसी दिन इनके कार्टून्स पर भी छापा मारेंगे।
शतदल में इनकी ४ बेहद खूबसूरत कवितायेँ , मैं लिखता हूँ कवितायेँ, कभी तो ऐसा जरूर हुआ होगा, पिता को सुनना कम हो गया है ,और जब सुई की आवाज़ भी जुर्म समझी गयी , शामिल हैं।
मुझे इनकी चारों ही कवितायेँ बहुत पसंद आई। उम्मीदों भरी कवितायेँ हैं।
आइये आपको इनकी पहली कविता पढ़ाती हूँ :-
"मैं लिखता हूँ कवितायेँ अपने मित्र के लिए
उसके मित्रों के लिए
अपनी बेटी के लिए लिखते समय मैं उसके लिए भी लिख देना चाहता हूँ
जिससे एक दिन वह प्रेम करेगी
प्रेम करने वालों के लिए लिखूंगा मैं कवितायेँ माँ के लिए पिता के लिए
भाई के लिए ज़रूर लिखूंगा मैं
उसे एक दिन हो जाना है पिता मेरे लिए
उनके लिए नहीं लिखूंगा मैं
जिनके पास प्रेम की पराजय के ढेरों किस्से हैं"
आह कितनी प्यारी कविता है , सच कैसे लिखी होगी आपने , एक पिता होने के नाते इतनी बड़ी बात सर
"अपनी बेटी के लिए लिखते समय मैं उसके लिए भी लिख देना चाहता हूँ
जिससे एक दिन वह प्रेम करेगी"
सच ऐसा वही लिख सकता है जो भावनाओं को समझता है। जो समझता है अपने बच्चों की छोटी छोटी खुशियों को। जो देना चाहता है अपने बच्चों को ज़माने भर की ख़ुशी।
और इस कविता की यह लाइन -
"भाई के लिए ज़रूर लिखूंगा मैं
उसे एक दिन हो जाना है पिता मेरे लिए "
कितनी गहरी बात कह दी है। बहुत हिम्मत चाहिए ऐसा कहने के लिए। सच एक बड़ा भाई पिता तुल्य ही होता है। समझ रही हूँ मैं इन शब्दों का अर्थ , इनके पीछे छुपी भावना , वो भविष्य का डर , जो एक बड़े भाई की छाया में सुकून पायेगा। सच प्रेम कभी हारता नहीं। प्रेम हर रिश्ते में है। और जो प्रेम को सिर्फ एक बंधन समझते हैं , औपचारिकता समझते हैं वे ही प्रेम की हार के किस्से गढ़ते हैं। और वे कभी आपकी इस कविता को नहीं समझ पाएंगे। आप कभी लिखना भी नहीं उन लोगो के लिए कविता
" जिनके पास प्रेम की पराजय के ढेरों किस्से हैं""
चलिए पढ़ते हैं ऐसी ही एक और भावनाओं के ओत प्रोत कविता , "कभी तो ऐसा जरूर हुआ होगा"
इसमें उम्मीदें हैं , कोशिशों की आखरी हद है। और एक आस है , प्रार्थना है उस ऊपर वाले से उन सभी लोगों के लिए जो चलते रहे , हारे भी , मगर टूटे नहीं। यह कविता उन्ही कोशिशों के प्रयत्नो के आकाश को छूती है।
"कभी तो ऐसा जरूर हुआ होगा कि पतंग उड़कर आकाश हो गयी होगी
की मछली तैरते तैरते समुद्र हो गयी होगी
कभी तो ऐसा हुआ होगा की की पत्थर का बुत बनाया गया हो
और बात करने लगा हो
की बादलों ने अपने हाथों से मरुस्थल में कोई नदी बनायी हो
कभी तो ऐसा ज़रूर होगा की
भूख लहलहाते खेत बन गयी होगी"
उफ़ कितनी संवेदनशील कविता है , क्या इन शब्दों के परे कोई और ऐसा अहसास है जो कहा ना गया हो। सच ये आपके दुःख की तकलीफों इंतहा ही तो होगी , के बादल खुद अपने हाथों से मरुस्थल में नदी बना देगा। ये आपकी हिम्मत , आपकी सहनशक्ति की सीमा ही होगी , जो तड़पती बिलबिलाती भूख लहलहाती खेत बन गयी होगी।
हमारे देश में जाने ऐसे कितने ही लोग है जो बस कल की आस पर आज के दुःख को सह जाते हैं। जाने कैसा जज़्बा होता है , ऐसा लगता है जैसे पार्शनियों को ही मुंह चिड़ा रहे हों।
उन्हें उनकी भूख ज़िंदा रखती है। उनकी ख्वाहिश , उनकी उम्मीद ज़िंदा रखती है। ज़िन्दगी सिर्फ आने वाले अच्छे समय की एक उम्मीद ही तो है , और क्या है।
सच बहुत ही प्यारा लिखते हैं आप सर जी। ऐसा लिखते हैं की जीना सीखा देते हैं।
इनकी अगली कविता जब "सुई की आवाज़ भी जुर्म समझी गयी " भी अत्याचारों का का डटकर मुकाबला करने को प्रेरित करती है। इनकी कवितायेँ हारना नहीं गिर कर उठना सिखाती है।
आइये पढ़ते हैं इनकी अगली कविता -
जब सुई की आवाज़ भी जुर्म समझी गयी
ताली बजाई मैंने बार बार नगाड़े पीटे
जुगनू पर प्रतिबन्ध के दिनों जगमगाते दीये
पूरी बस्ती में बांटे
सबकी आँखों में राम राज्य का सपना पिरोया जा रहा था जब
मैंने देवता की मूर्ती तोड़ी
सैनिक तलवारों से पैर काट थे सबके
तब मैंने सबसे महंगा जूता ख़रीदा
(उसके तल्ले पर किसी पुराने राजा के माथे के लहू के कतरे चिपके थे )
बंद कमरो की खिड़की खोलना पसंद है मुझे
कि धार मोड़ सकूँ आवारा नदी की हवा में
वेग भरना
अग्नि में और आग उँड़ेलना
और पसंद है मुझे बूढ़ी देह में बचपन की किलकारी रोपना"
आह शानदार , बहुत ही शानदार कविता। सच मुझे भगतसिंह याद आ गए और बिस्मिल साहब की वो ग़ज़ल भी
"सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है , देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए कातिल में है "
ये वही क्रांति का स्वर है जो उस वक़्त भगतसिंह , राजगुरु , आज़ाद के शब्दों में गूंजा था।
सच मैं जीना चाहती हूँ इस कविता को। बहुत ही अच्छी लगी सर जी मुझे आपकी ये कविता। आज हमें ऐसे ही नायकों की ज़रूरत है , जो हिम्मत रख सके अपने जूतों से उन हाथों को रोंदने की जो बेगुनाहों के खून से रंगे हों।
आपकी यह कविता तो सर मरे हुओं में भी प्राण फूँक दे ऐसी है।
नतमस्तक हूँ मैं आपके आगे।
इस कविता को पढ़ने के बाद तो कुछ और पढ़ने का मन ही नहीं करता। हमारे मनोज छाबड़ा जी की कवितायेँ है ही ऐसी की आप पन्ना पलटना ही भूल जाओ।
इनकी एक कविता और है , शांत से भाव लिए , पिता से अपने लगाव और चिंता को व्यक्त करती हुई।
कुछ दिन पहले ही एक बात किसी अपने से सुनी थी -" के बेटा जब हमें छोटी चोट लगती है ना तो हम कहते हैं "ओ माँ " और जब बड़ी विडम्बना सामने आती है तो अचानक ही हमारे मुंह से निकल पड़ता है "ओरे बाप रे अब क्या "
कहने को तो ये बस एक छोटी सी बात है मगर देखा जाए तो कितनी सच , होता है ना ऐसा कई बार जब बड़ी मुसीबत आती है तो हमें पिता का सहारा बहुत याद आता है। इसलिए नहीं के हमें उनसे आर्थिक मदद चाहिए , बल्कि इसलिए क्यूंकि हमें समस्या से जूझने का तरीका समझना होता है। बहुत बड़ा सहारा होता है पिता का होना।
आइये पढ़ते है ये बड़ी ही मार्मिक सी कविता -
"पिता को सुनना कम हो गया है
ऊँची आवाज़ को भी बहुत ध्यान देने पर सुन पते हैं वे
ये पहला सेंस है उनका जो जाने की तैयारी में है
पिता थोड़े कम हो रहे हैं
मुझमे एक कदम दूर हो रहे हैं पिता
एक अंश पिता का फिसल रहा है धीरे धीरे
एक अंश मेरा आहिस्ता आहिस्ता मर रहा है
जल्द उनकी आँखे कमजोर होने लगेंगी
मैं थोड़ा और मर जाऊंगा तब
एक एक बार पिता फिसलते चले जायेंगे मेरे हाथो से
जिकल जायेंगे दूर और मेरे हाथ एकदम खली हो जायेंगे अंत में
पिता छोड़ जायेंगे सबकुछ और निकल जायेगे अकेले
और मैं चुपचाप मर जाऊंगा अपनी उपस्थिति के बावजूद"
उफ़ निशब्द हूँ सर जी। .... इस कविता को मैं सिर्फ महसूस कर सकती हूँ। इसे कह नहीं सकती। पिता के बाद अपने जीवन की कल्पना करना और उसे शब्दों में पिरोना हर किसी के बस की बात नहीं है। इनकी कविता पिता पर लिखी जाने वाली अन्य कविताओ से एकदम अलग दिखती है। वह व्यक्ति जिससे हम सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं उससे बिछड़ने का डर, और आशंका हमेशा ही बनी रहती है। इनकी पहली कविता "मैं लिखता हूँ कवितायेँ " उसमे भी इन्होने पिता के बाद भाई को पिता तुल्य मानने की बात कही है। यह इनके रिश्तों की प्रगाढ़ता को दर्शाता है।
सच सर जी , यह आने वाले समय का डर, मन करता है घडी की टिक टिक ही रोक दूँ। मैं भी बहुत डरती हूँ सर। बस एक ही दुआ करती हूँ हमेशा ईश्वर करे हम सभी पर अपने माता पिता का साया हमारी आखरी साँस तक बना रहे।
सर आप बहुत ही अच्छा लिखते हैं। ईश्वर करे आप यूँही लिखते रहें। आपकी कविताओं की संवेदनात्मकता हमेशा बनी रहे। यही दुआ है।
मीनाक्षी जिजीविषा
क्या लिखूं , कहने को तो बस दो शब्द.. मगर बहुत बड़ा सवाल है ये... क्या लिखूं??? बिलकुल ऐसा ही जैसे क्या कहूँ, जैसे किसी के बरसों के इंतजार में सोची गयी ढेर सी बातें , उससे रूबरू होते ही , एक लम्बी साँस और दो आंसुओं के साथ जैसे कहीं खो जाती है। कई बार शब्द निरीह होकर रह जाते हैं।
एक शेर है.. ऐसी वैसी बातों से तो अच्छा है खामोश रहो या फिर ऐसी बात कहो जो ख़ामोशी से अच्छी हो।
हाँ बहुत खूबसूरत होती है ख़ामोशी। मगर ख़ामोशी कभी निर्वात सी नहीं होती , वो शब्दविहीन होती है , भावविहीन नहीं। और ऐसे ही भावों को जो शब्दों में ढाल देने का हुनर रखती हैं वो है हमारे शतदल की आज की छिन्यालीसवी कवयित्री मीनाक्षी जिजीविषा।
इनकी शतदल में सम्मिलित तीन कवितायें , अनुपस्थिति में उपस्थिगी , कैलेण्डर और मलाला तुम मलाल मत करना है। मुझे सबसे प्यारी अनुपस्थिति में उपस्थिति लगी।
बहुत ही कोमल भाव हैं इस कविता के … मुझे इसका शीर्षक ही बहुत पसंद आया "अनुपस्थिति में उपस्थिति" कितना कुछ कह जाता है ये शीर्षक ही। लेकिन जिस तरीके जिन भावों से इसे मीनाक्षी जी ने संजोया है , सच गज़ब है।
आइये पढ़ते हैं - "अनुपस्थिति में उपस्थिति"
"यूँ ही मिल गया था वो कि जैसे यूँ ही मिल जाती है
कई चीज़ें जीवन में बिना किसी इच्छा उम्मीद और
प्रतीक्षा के
बस यूँ ही
जैसे राह चलते किसी बच्चे को मिल जाये कोई सिक्का
पुलक कर कुछ झिझककर नज़र बचा कर
चुपके से रख ले उसे वह अपनी कमीज की जेब में
रोज़ रोज़ छू कर उसे आश्वस्त हो प्रसन्न हो एक
अहसासे अमीरी लिए हुए खर्च भी नहीं करे इस दर से
उसे की खाली हो जाएगी जेब
सम्हाल ले उसे बुरे दिनों के अच्छे उम्मीद भरे उजाले
स्वप्न की तरह
इतनी सम्भल के बाद भी एक दिन अचानक खो जाये
वह जैसे भीड़ भरी बस में अचानक कट जाये जेब किसी
की वो बच्चा हैरान परेशान उदास बार बार जेब में
हाथ डाल सबसे छुपकर टटोलता है सिक्के को अभी
अभी तो यहीं था
कहाँ गया वाला अचरज लिए अपनी ही नहीं समय
की कमीज भी तलाशता है जेब का हर एक कोना
पृथ्वी के हर कोने की तरह छूना चाहता है उसे महसूस
करना चाहता है मगर हर बार बेचैन उंगलियां फटी जेब
से बाहर आ जाती है शून्य में
मगर इस शुन्य में भी एक आर्द्र स्मृति है उस सिक्के की
उपस्थिति की एक नया पाठ पढ़ाती है ज़िन्दगी उसे
उपस्थिति से भी गहन होती है अनुपस्थिति
आह ....... सच कितनी खूबसूरत कविता है , कितना प्यारा ख्याल है। सोच रही हूँ इस ख्याल को ही सिक्के सा जेब में छुपा लूँ। सच कई दफा ऐसा सोचती हूँ , कई सारे पल कैद करके रख लेना चाहती हूँ , कई सारे ऐसे लोग मिलते हैं , चाहती हूँ जिनके साथ हमेशा रहना। और कोई एक जिसे बस अपना बना के रख लेना। छीन के , चुरा के सबसे छुपा के। मगर वो शेर याद आ जाता है ……… तू किसी और की जागीर है ऐ जाने ग़ज़ल ............. अच्छे से जानती हूँ के ये मिलने नहीं हैं , मगर फिर भी बार बार तलाशती हूँ , झांकती हूँ , पलट कर देखती हूँ , के शायद कोई मेरे पीछे पीछे हो , या शायद कोई अगले मोड़ पर मिल जाए , के शायद कोई बस यूँही आँखे बंद करूँ और खोलू तो सामने आ जाये। .......... छम्म से। ……… आह
मगर ........... बस शून्य हाथ आता है।
"सूरज जा चूका है , शाम हो चुकी है।
रात होगी चाँद आएगा , वो भी किसी और का होगा
मैं मुस्कुरा दूंगी वो भी मुस्कुरा देगा
जैसे मुस्कुरा दिया था सूरज जाते जाते "
गुज़र जाते हैं , खुशनुमा पल, बिछड़ जाते हैं बेहद अजीज़ बेहद करीबी लोग , रह जाता है खालीपन , सूनापन … और फ़ैल जाती हैं वहां आके यादें अपना जमावड़ा डाल के। खाली पड़े घर पर कब्जा करके। "उपस्थिति से भी गहन होती है अनुपस्थिति"
क्या मीनाक्षी जी आप भी ...... क्या कविता लिखते हो , दिल निकल कर बाहर आ जाता है जान के साथ पढ़ने वाले का ।
चलिए इस अनुपस्थिति से बाहर निकलते हैं और वास्तविकता से जुड़ते हैं ज़िन्दगी की।
इनकी अगली कविता "मलाला तुम मलाल ना करना" बड़ी ही मर्मस्पर्शी कविता है। आपको निर्भया तो याद होगी। सिहर जाते हैं ना नाम लेते ही। आह ……… जाने ऐसे कितने नाम हैं , जाने ऐसे कितने किस्से , सिर्फ हमारे ही देश में नहीं हर जगह हर देश में मौजूद हैं। मगर लोग दो दिन का सोग मना के उन्हें भूल जाते हैं। हालाँकि मैं खुद इन लोगों में शामिल हूँ। फिर भी एक दर्द है एक गुस्सा है जो भरा है।
आइये पढ़ते हैं ये कविता - "मलाला तुम मलाल ना करना"
"तुम्हे तो गोली लगनी ही थी
तुम काढ़ो फूल पत्ते बेल बूटे अपने दुपट्टे पर
मगर तुम औरों के जीवन में फूल कैसे खिला सकती हो
तुम घर घर खेलो, ब्याह रचाओ गुड्डे गुड़िया का
खुद गाओ अपना मर्सिया
किंतु तुम्हारे होठों पर अमन और चैन के
मीठे तराने कैसे हो सकते हैं
हिमाकत भी कैसे की तुमने”
“किन्तु मलाला तुम मलाल ना करना
तुम्हारे माथे के ठीक बीचो बीच लगी इस गोली का
जहर फ़ैल रहा है धीरे धीरे स्वात की घाटी से होता हुआ
जंगलों से गुज़रता हुआ पहाड़ो से उतरता हुआ
पहुँच रहा है अब ये हमारे मैदानों तक भी
और उतर रहा है हमारी रगों में
जनून की शक्ल में
देखना मलाला तुम्हारे लहू का रंग एक ना एक दिन
ज़रूर रंग लाएगा और ज़रूर बदलेगा इस फ़िज़ा का रंग
एक न एक दिन ज़रूर बदलेगा इस फ़िज़ा का रंग
मलाला तुम मलाल न करना"
हाँ मलाला तुम मलाल ना करना , तुम्हारी कुर्बानी व्यर्थ नहीं जाएगी। तुम्हारे लहू की तपिश ने आग भर दी है हम सबमे। देखते हैं कितने सर काटेंगे, कितनो को गोली मारेंगे ये तानाशाही। कब तक ये दुनिया देखती रहेगी अपनी ही बच्चियों को लुटता हुआ। ये क्रूर हाथ देखना काटे जाएंगे एक दिन , देखना एक दिन नोच ली जाएगी हर बुरी नज़र। ज़ुल्म एक दिन मिटेगा। ज़रूर मिटेगा। रुंधे गले चीख पड़ेंगे एक दिन। और सच मानो तुम्हारे बेल बूटे , फूल पत्ते फिर से खिल उठेंगे। हर गुड़िया अपने गुड्डे से वचन लेगी अपने सम्मान को बनाये रखने का। उम्मीद रखो , अमन चैन लाने के लिए भी हाथों में मशालें लेना ज़रूरी है। "देखना एक न एक दिन ज़रूर बदलेगा इस फ़िज़ा का रंग"
जैसा तुम चाहती हो वैसा ही , तुम्हारे ख्वाबों सा ही।
हमारे देश ने आज़ादी तो पा ही ली है , मगर आज भी हमारा देश , रूढ़ियों का गुलाम है। जिसमे सदियों से पिसती आ रही हैं औरतें चुप चाप। आज भी वे दांव पर आसानी से लगा दी जाती है , आज भी सरे आम उनका चीर हरण होता है। आज कोई कृष्ण नहीं आता है बचाने उन्हें। आज वे खुद ही अपनी आखरी साँस तक बिना हाथ जोड़े विरोध करती हैं।
मीनाक्षी जी की कवितायेँ अंतर्द्वंद्व की कवितायेँ हैं। ये किसी हारी हुई स्त्री की कविता नहीं है। हालांकि हर औरत आवाज़ उठाने से पहले अपनी सहन करने की हद्द तक समझौते करती है। लेकिन जहां बात आत्मसम्मान और इज़्ज़त की आती है वहाँ वो "ना " बोलना भी जानती है।
इनकी अगली कविता "कैलेंडर " औरतों का अपने परिवार के लिए अपनी सारी खुशियों , ख्वाहिशों के परित्याग को दर्शाती है। एक बहुत ही कॉमन से विषय को एक दम नए अंदाज़ में व्यक्त किया है।
आइये पढ़ते हैं – कैलेंडर
“इसकी तारीखों पर तो लगे हैं नीले गहरे अख़बार वाले
के हिसाब के कुछ लाल क्रॉस दूध वाले की गैर
हाजिरी के कुछ तिकोने निशान धोबी के हिसाब के
हरे निशान याद दिलाते हैं उसे
बच्चों के एग्जाम और PTM
एक की काली निशान लगाये हैं उसने याद रखने
को पति की महत्वपूर्ण आफिस मीटिंग्स और दूर
चौरस निशान लगा छोड़े हैं उसने ममिया सास के पोते
के मुंडन पर जाना याद रखने के लिए ये बहुराष्ट्रीय
कंपनी का दिलकश कैलेंडर नहीं ये तो हल्दी नून तेल के
चिकने निशानों और महक से भरा एक साधारण सी
घरेलु स्त्री का सादा सा कैलेंडर है जिस पर
मनौतियां मानती शीश नवाती रखती है वह दुनिया
भर का हिसाब अपनी दुनिया को भुलाये हुए"
आह ……… निशब्द हूँ ……… ऐसा ही कैलेंडर मैं बचपन से देखती आ रही हूँ। यूँ लगा जैसे इस कविता की स्त्री मेरी माँ है। कितना सच कहा है अपने ये कोई अंतर राष्ट्रीय कैलेंडर नहीं , ये एक घरेलु स्त्री का कैलेंडर है। ये एक घरेलु स्त्री की रोज़ की बंधी हुई ज़िन्दगी है। वो इतना कुछ करती है फिर भी उसके त्याग को नकार दिया जाता है। हर बार यह कह दिया जाता है " अरे तुम घर में रहकर दिनभर करती क्या हो " सही माने में एक घरलू स्त्री की ज़िन्दगी ऑफिस में काम करने वाले हर मर्द औरत से ज़्यादा पेंचोखम वाली होती है।
सच कितने निराले तरीके से आपने इतनी गहरी बात कह दी। एक बात और कहूँ कई दफा औरतों के द्वारा रंगे कैलेंडर का मज़ाक तक बना दिया जाता है। मगर फिर भी वह
"मनौतियां मानती शीश नवाती रखती है वह दुनिया
भर का हिसाब अपनी दुनिया को भुलाये हुए"
नमन करती हूँ मैं आपको , आपकी सोच को , आपकी कोमलता को। वाक़ई आप एक बहुत ही प्यारी कवि हैं। ईश्वर करें आप यूँही लिखती रहें। आपकी कविताओं की संवेदनाएं सदा यूँही बनी रही।
मृदुला शुक्ल
शतदल के अर्धशतक से 3 कदम और दूर हूँ। और आज अपनी प्रिय कवयित्री मृदुला शुक्ल (मृदुला
दी ) पर लिख रही हूँ। इन्हे पढ़ना और इनपर लिखना अपने आप में ही एक सुखद अनुभूति है। इनकी कविताओं में मुझे कभी बिना बात का रोष , गुस्सा , आक्रोश , कभी नहीं मिला। इनकी सबसे बड़ी खूबी ही यही है , के इनका नजरिया हमेशा हट कर होता है। आप इनकी कोई भी पोस्ट उठा कर देख लीजिये। ये आपको आश्चर्यचकित ही कर देंगी। जैसे कि इन्होने एक तस्वीर पर कविता लिखी थी , जिसमे दो औरतें घट्टी पीस रही हैं , एक आदमी सारंगी बजा रहा है , और एक आदमी हुक्का पी रहा था। हम देखते तो शायद उसे सुन्दर कलाकृति कहकर नवाज़ भर देते , मगर मृदुला दी ने उस सुन्दर कलाकृति में से भी स्त्री और पुरुष की बराबरी का एक चुभता सवाल निकाल कर सामने रख दिया।
"सुनो !क्या तुम मेरे लिए बदल सकते हो दीवार पर टंगी इस तस्वीर के पात्रो की जगह भर ? "
इनकी कविताओं में मुझे कभी उग्रता नहीं दिखी। बिलकुल जैसा नाम है वैसा ही लिखती हैं "मृदुला"
एक ख़ास बात और , मृदुला दी अपने परिवार की देखभाल और साहित्यिक कार्यं के साथ साथ अपने
मन की ख़ुशी और सुकून के लिए समाज सुधार के कार्यों से भी जुडी हुई हैं। इसे कहते हैं एक सच्ची कवि। जो सिर्फ दूसरे के दर्द को लिखती ही नहीं ,दूसरे के दर्द को बांटती भी हैं। तो ये हैं हमारी शतदल की ससेंतालीसवी कवयित्री श्रीमती मृदुला शुक्ला जी।
आपको शतदल में इनकी तीन कवितायेँ "पिता" , "मेरी कवितायेँ" और अस्पताल पढ़ने को मिलेंगी। इसके अलावा इनकी बोधि प्रकाशन से उम्मीदों के पांव भारी हैं नामक किताब भी छप चुकी है। इनकी कई कवितायेँ , अन्य पत्र पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होती रहती हैं। मुझे शतदल में शामिल इनकी सारी
ही कवितायेँ अच्छी लगी। तीनो ही अलग रंग की हैं। वैसे देखा जाए तो ये टॉपिक बहुत कॉमन होते हैं , लेकिन उन्हें भी औरों से अलग नए तरीके से लिखना यही तो एक कवि का कमाल होता है। जैसे हर
किसी की हर वस्तु या व्यक्ति के सम्बन्ध में राय एक सी नहीं होती वैसे ही एक ही विषय पर लिखी कवितायेँ भी अपना एक अलग वजूद अलग अस्तित्व रखती हैं तो आइये पढ़ते हैं इनकी कविता -पिता
"चौतरफा दीवारें थी भीतर घुप्प अँधेरा
एक खिड़की खुली कुछ हवा आई
ढेर सारी रौशनी तुम चौखट हो गए
आधे दीवार में धंसे से आधे कब्जो में कसे से
ये जो उजाला है ना खिड़कियों के नाम है
चौखट तो अब भी डटी है
दीवारों के सामने अँधेरे से लड़ती
पिता तुम चौखट ही तो रहे हमेशा
ये जो तमाम उजाले हैं हमारे हिस्से के
ये मुझ तक पहुंचे ही हैं
तुम्हारे कंधो पर सवार होकर"
आह सच , बेहद प्यारी दिल को छूती हुई सी कविता। हम सभी की ज़िन्दगी में पिता का हमारे बचपन से ही एक अलग सा मुकाम होता है। कभी डराता हुआ तो कभी हर बुरी नज़र से बचाता हुआ। पिता
से ही मिलता है अनुशासन। पिता से ही मिलती है अच्छे बुरे की समझ।
कभी डरा कर तो कभी प्यार से। ,पिता जो घर की चौखट होते हैं, वो चौखट जो अँधेरे उजाले के बीच है। खुली हवा से परिचय कराती सी। पिता के कंधे और हम , और हमारे सर के ऊपर का आसमान , और आसमान के नीचे , नदिया , पहाड़ , समंदर , घूमती राहें , चकमक बिजलिया और हमारी आँखे। मगर राह वो जो पिता ने दिखाई। पिता ने कराया हर अच्छे बुरे से परिचय। हर सही गलत से परिचय।
ये भी कहा के मैं हूँ ना , और ये भी के मैं हर वक़्त नहीं रहूंगा। सहारा भी बने , और आत्मनिर्भर भी बनाया। सच कहा दी आपने -पिता हाँ चौखट ही रहे हमेशा उजालों और अंधेरो के बीच के।
अगर हम ढूंढे तो और ये कवितायेँ भी शायद उसी चौखट से आती हुई हमें मिलेंगी। हाँ सच ! कवितायेँ हम नहीं लिखते। कवितायेँ तो हमें मिल जाया करती हैं , अचानक ही , कभी डरा के सुलाई गयी नींद में , तो कभी पीछे से डगमगाती साइकिल पकडे गलियों में।
आइये पढ़ते हैं मृदुला दी को कवितायेँ कहाँ और कैसे मिलती है? हमें भी तो पता चले कैसे लिखती हैं इतना अच्छा। हम भी चुरा लाएंगे कुछ एक। हैना।
आइये पढ़ते हैं इनकी अगली कविता - मेरी कवितायेँ
"कविताये मुझे मिलती हैं चौराहों पर तिराहों पर और अक्सर दोराहों पर
संकरी पगडंडियों पर कवितायेँ निकलती हैं
रगड़ते हुए मेरे कंधे से कन्धा और डगमगा देती है मेरे पैर
इक्का दुक्का दिख ही जाती हैं तहखानो मे
अंधेरों को दबोचे उजालों से नहाये महानगरों की पॉश कालोनियों में
पिछले दिनों गुज़रते हुए गांव के साप्ताहिक हाट में
उसने आकर मुझसे मिलाया हाथ और फिर झटके से गुज़र गयी
मुस्कुराते हुए दबा कर अपनी बांयी आँख
मेरे बेहद अकेले और उदास दिनों में
वो थाम कर घंटो तक बैठती है मेरा हाथ
थपथपाती है मेरा कन्धा
अपनी आँखों में सब कुछ ठीक हो जाने को आश्वस्ति लिए
सच तो ये है की कविताये मुझे घेर लेती हैं
पकड़ लेती हैं मेरा गिरेबान
सटाक सटाक पड़ती है मेरी पीठ पर
और छोड़ जाती है "
आह कितनी खूबसूरत कविता है। कितना प्यारा सच।
"कविताये मुझे मिलती हैं चौराहों पर तिराहों पर और अक्सर दोराहों पर"
दोरहों पर ------------------ उफ़
वाह दी क्या बात बोली आपने। … दोराहों पर भी अगर कवितायेँ मिल जाए तो जीना ही आसान हो जाए। कितना खूबसूरत हो जाए जीना।
वाक़ई जिसके साथ कविता हो , या जो ज़िन्दगी को ही कविता की तरह जी ले , कितना खूबसूरत होगा वो कवि , किसी सूफी संत जैसा। हैना।
कवितायेँ कभी साथ बैठ कर समझाती हैं , तो कभी गिरेबान पकड़ कर लताड़ भी देती हैं।
और दी मुझे सबसे अच्छी लगी आपकी ये लाइन
"उसने आकर मुझसे मिलाया हाथ और फिर झटके से गुज़र गयी
मुस्कुराते हुए दबा कर अपनी बांयी आँख"
गुज़र गयी किसी दोस्त सी , या किसी उस ख्वाहिश सी जो मन में जाने कब से हिलोरे ले रही है। मगर हाथ नहीं आती। मुंह चिढ़ाती हुई निकल जाती है पास से। वाह दी वआह ………… मज़ा आ गया।
काश के ज़िन्दगी कविता सी ही होती काश।
मगर ऐसा नहीं है। बहुत कुछ होता है कविताओं के परे भी। कई किस्से , कोई घटना , कोई हादसा , उफ़ …………।
"आइये पढ़ते हैं इनकी अगली कविता अस्पताल।
अस्पताल में अपने बिस्तर पर अकेले लेटे
आप पाते हैं आपके पास पर्याप्त कारण नहीं है दुखी होने का
वहाँ मौजूद लोगों के चेहरे पर नाचती भय की रेखाएं
भारी पड़ जाती है आपके हर दुःख पर
आप देखते हैं डॉ. का सफ़ेद चोगा पहनना उसे
नहीं साबित कर देता धवल ह्रदय होना
अक्सर साबित करता है उसकी रगों में
बहते लाल रंग का सफ़ेद हो जाना
बेवजह मुस्कुराती नर्सों के पास कोई वाजिब वजह
नहीं होती मुस्कुराने की
आप पाते हैं की उनके मुस्कुराने का सम्बन्ध
उनकी किसी आतंरिक प्रसन्नता से नहीं
उनके चूल्हे की रोटी से है
विभिन्न प्रकार के कचरों के निस्तारण के लिए रखे लाल पीले काले डब्बे
आपको अपने ही मस्तिष्क के गुप्त तहखानो से लगते हैं
मृत्यु के कोलाहल से भरी इस ईमारत में
जीवन आकांक्षा नहीं आशा होता है
डॉ के आखरी न में सर हिलाने तक"
उफ़ क्या कहूँ। .......... डरा ही दिया आपने तो ।
वैसे कहते हैं भगवान करे किसी को कभी अस्पताल और कोर्ट कचहरी का मुंह ना देखना पड़े। मगर क्या करें , ज़िन्दगी है। कब किस मोड़ पर लाकर खड़ी कर दे हमें। कितना सच कहा अपने -
"मृत्यु के कोलाहल से भरी इस ईमारत में
जीवन आकांक्षा नहीं आशा होता है
डॉ के आखरी न में सर हिलाने तक"
कितने मजबूर हो जाते हैं हम इस जगह जाकर। एक हँसते खेलते इंसान को वापस पाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा देते हैं। ये डॉक्टर ये नर्सेस ही हमें देवदूत से लगते हैं। इनकी भी अपनी मजबूरिया हैं। ये भी तो बस अपना काम करते हैं। अस्पताल से आती दवाइयों और फिनाइल की बू आपको अंदर ही अंदर कचोटती है तो एक विश्वास भी दिलाती है। एक आस। सिर्फ एक आस।
एक बात और कहूँ , भले ही इन नर्सेज की मुस्कराहट इनकी चूल्हे की रोटी हो। लेकिन जब ये मरीज़ को पूरी तरह से स्वस्थ होता देख डिस्चार्ज होता देखती हैं , तो ये भी उसकी ख़ुशी में शरीक हो कहती हैं , अब वापस यहां मत आना। मुझे बहुत अच्छी लगती हैं ये नर्सेज जो इधर उधर की बातों में लगा चुपके से कड़वी दवा चटा इंजेक्शन लगा देती हैं।
और कितनी बड़ी बात ना - इस जगह आकर हमें सभी बीमार , दुखी दुआओं पर निर्भर , और ज़िन्दगी से जिंदगी के लिए लड़ते लोग ही मिलते हैं। जो हमें हमारा दुःख हमारी तकलीफ भुला देते हैं।
मृदुला दी आपने "अस्पताल" जैसे विषय पर बहुत ही अलग सोच के साथ बहुत ही बढ़िया कविता लिखी है।
नमन है आपको मेरा।
ईश्वर करे आप यूँही लिखती रहें। आपको पढ़ना मुझे बहुत हिम्मत देता हैं।
नरेंद्र गौड़
आज सोच रही हूँ बिना भूमिका बांधे सीधे मुद्दे पर आजाऊं। क्यूंकि आज के हमारे शतदल के अड़तालीसवे कवि श्री नरेंद्र गौड़ जी ऐसे ही सहज सरल व्यक्तित्व के इंसान हैं। शाजापुर (मालवा ) के रहने वाले नरेंद्र सर का जैसा सरल व्यव्हार है वैसे ही सरल , बिना किसी लाग-लपेट वाली इनकी लिखी कवितायेँ भी हैं।
मालवा की मिट्टी के बारे में कहते हैं , के अगर इसमें पाँव फंसा तो ये आसानी से छोड़ती नहीं है। साथ साथ चलती है। बस समझिए इसी मिट्टी के गुण लिए हुए है नरेंद्र सर की कवितायेँ भी। नरेंद्र सर नईदुनिया में पत्रकार हैं , तथा ये बुनियाद नाम की पत्रिका का प्रकाशन भी करते हैं।
शतदल में नरेंद्र सर की ४ बेहद प्यारी कवितायेँ छपी हैं। कवि और कविता , बहन जायगी कब , असल कविता और एक पेड़ से मिलने आया हूँ। चारों ही कवितायेँ सहज सी भाषा में अपनी भाव को व्यक्त करने में बखूबी कामयाब हुई हैं।
इनकी कविता "बहन जायगी कब " मुझे बहुत ही पसंद आई। एक माध्यम वर्गीय परिवार , उसकी सोच , समस्याओं और एक बहन के हालात को व्यक्त करती ये कविता सीधे आपके ज़हन को झिंझोड़ देती है।
ये हमारे मालवा की ही कहानी नहीं ये भारत के हर क्षेत्र की स्त्री की कहानी है। शादी के बाद बहन का सदा के लिए अपने मायके आजाना। और उसके यूँ रुकने पर प्रश्न चिन्ह लगना ............. बहुत ही मार्मिक है।
आइये पढ़ते हैं ये कविता -बहन जायगी कब……
पोटली लिए
गांव से आई बहन को
एक माह हो गया
घर का रेशा-रेशा
जर्रा-जर्रा पूछ रहा है-
कब जाएगी बहन ?
जाएगी कब बहन ?
बीडिया फूंकता रहता है
सब दिन बहन का पति
रिया-रिया करता है
बहन का बेटा
चिमलाई-सी बहन बीमार लगती है
जैसी भी लगे अपनी बला से
पत्नी पूछती है-
आपकी बहनजी कब जाएंगी ?
बच्चे पूछते हैं यह औरत कब जाएगी ?
मैं भी बहन से पूछना चाहता हुॅ
लेकिन गहरे गड्डों में धंसी
उसकी आंखों से
बाहर नहीं निकल पाता हुॅ।
एक माध्यम वर्गीय को जहाँ खुद महीने के अंत तक घर खर्च चलाने में सेकड़ो जतन करने पड़ते हैं वहीँ एकऔर परिवार का बोझ उसी सीमित पूंजी में उठाना बहुत कठिन होता है। वहां ऐसे सवाल "बहन जायगी कब " ज़हन में आ ही जाते हैं। ऐसे हालातों में इंसान "अतिथि देवो भवः " वाले सिद्धांतों को ताक पर धर ही देता है। पत्नी को घर आई ननंद का अपने परिवार के साथ महीने भर तक टिके रहना अखरता है। बहन के पति का बिना काम बैठे रहना बीड़ी फूंकना , उनके बच्चों का रोज़ का रोना , कानो में चीस मारता है। अपना ही घर अपना नहीं लगता। बच्चे तक असहज महसूस करते हैं। रिश्ते भूल जाते हैं। आत्मीयता नहीं रहती। बुआ शब्द उन्हें अच्छा नहीं लगता। वे उसे "औरत " कह कर सम्बोधित करते हैं। मगर वो भाई क्या करे जो चाह कर भी बहन से ये नहीं पूछ पता के तुम कब जाओगी। क्यूंकि बहन की गहरी धंसी आँखे उसे उसकी मजबूरियां गिना देती हैं।
सच बड़े मुश्किल होता है ऐसे हालातों में सामंजस्य बिठा पाना।
उफ़। ...... सर आपकी इस कविता ने मुझे कई सारे ऐसे किस्से कई सारे ऐसे हालात याद दिला दिए ....
पर सच तब पैसा नहीं था लेकिन अपनत्व था। रिश्ते तब लगते थे की रिश्ते हैं।
खैर ये हर माध्यम वर्ग की कहानी है जो आपने बड़ी ही खूबसूरती से कही है सर जी।
आइये चलते हैं इनकी अगली कविता "कवि और कविता" की और -
ये कविता आजके साहित्यिकारों की सोच और माहोल को दर्शाती है। आज हम फेसबुक पर ही देखें , हर किसी की लिस्ट में हज़ार से ज़्यादा लोग (दोस्तों की श्रेणी) में जुड़े हैं। हमें इतना कुछ अच्छा पढ़ने को मिलता है। सीखने को मिलता है। अगर सोचा जाए तो फेसबुक आज के दौर का सबसे बढ़िया बड़ा और सस्ता मंच है। जिससे हर कोई जुड़ सकता है। लेकिन यहां भी लोगो ने अपने बनिये की दुकान खोल ली है। तू मेरी कविता लाइक कर मैं तेरी किये देता हूँ। और जहाँ किसी का किसी से विवाद हुआ , फिर तो देखिये क्या खूब कवितायें निकलती हैं शानदार शानदार गालियों में। इस बनियापन्ती से हम सभी बहुत अच्छे से परिचित हैं। और इसी को नरेंद्र सर ने अपने शब्द दिए हैं।
आइये पढ़ते हैं ये शानदार कविता -
"कवियों ने कवियों की सुनी कवितायेँ
कवियों की कवियों से हुई तकरार
कवियों की कवियों में चली लाते
कवियों की कवियों में हुई मनुहार
कवियों ने कवियों की छपी कवितायेँ
कविय ने कविय की पढ़ी कवितायेँ
कवियों ने कवियों को लिखा खत
भाई अच्छा लिखा अच्छा लिखा"
वाह सर बहुत ही शानदार लिखे हैं आप। क्या कहें ....
और सिर्फ ये काव्य का ही क्षेत्र नहीं आज की दुनिया का माहोल ही यही है। लेकिन जो इस माहोल से निकलकर लिखता है , जो काव्य को सच्चे मन से बिना किसी अपेक्षा के बिना किसी लालच के सराहता है , वही सच्चा कवि , वही सच्चा पाठक , और वही सच्चा आलोचक है। हमें चाहिए की हम सिर्फ चकाचौंध के पीछे , बड़े नामो के पीछे ही नहीं भागे , बल्कि उनका लिखा भी पढ़े , महसूस। वर्ना वाह वाह कहने में क्या रखा है। सिर्फ शब्द है। आह निकले तो बात है।
आइये ऐसी ही एक कविता और पढ़ाती हूँ , यकीन मानिए आपके दिल में समां जाएगी।
वो है "असल कविता"
"वह असल कविता थी
रद्दी समझ टोकरी के हवाले कर दिया
निर्ममता के साथ सखेद वापस किया
वही असल कविता थी
अनजाने हल्दी राई मिर्च की पुड़िया बंध गयी
न जाने कहाँ से कहाँ तक पहुंची
असंख्य हाथों की गर्माहट से गुज़री
किसी पगडण्डी से होती सुदूर बीहड़ में गई
असल कविता वह थी
ट्रैन की खिड़की से फेंक दी गुड़ीमुड़ी कर
सिगरेट की पन्नी पर लिख दी थी
किसी सूखे कुए में सड़ती रही
असल कविता थी"
वाह क्या शानदार कविता लिखे हैं सर जी आप ।
बहुत ही प्यारी कविता। सच मानिये ऐसी जाने कितनी गुमनाम कवितायें मैंने बीनी हैं और अपनी डायरी में सहेजी हैं। किसी पोहे की पुड़िया में तो किसी सामान की थैली में।
और ऐसे ही दौर से गुज़री भी हूँ , समझ सकती हूँ उस पल के दुःख को , जब कोई आपकी बेहद प्रिय कृति को निर्ममता से अस्वीकार करता है तो कैसा लगता है। कैसा लगता है जब कोई उसे बिना पढ़े बकवास कह देता है। लेकिन निराश ना होयें , हम तो शायद अभी नौ सीखिये हैं , इस दुःख से तो निराला जी भी गुज़रे हैं , जब उनकी जूही की कली अस्वीकार की गयी थी। हाँ लेकिन वो वक़्त वो दौर अलग था। तब वैमनस्यता नहीं रहती थी। आज तो अगर आपकी कोई कविता कोई अस्वीकार कर भर दे तो वो बुरा बन जाता है। खैर फर्क तो पड़ता है। आज निराला और प्रसाद भी तो नहीं है ना। आप और हम हैं। तो चलिए उन जैसे कवि न बन सके तो कोई बात नहीं , उन जैसे इंसान ही बनने की कोशिश करते हैं। हैना। वैसे भी एक कवि होने के लिए बहुत ज़रूरी होता है संवेदनशील होना। मगर आज जब ऐसे एक दूसरे को लताड़ते , भद्दी भाषा बोलते कवियों को देखती हूँ तो इस बात पर से यकीन उठ जाता है।
आइये पढ़ते हैं नरेंद्र सर की एक अति संवेदनशील कविता -एक पेड़ से मिलने आया हूं। जहाँ आदमी आदमी से आज सही से बात नहीं करता , वहां नरेंद्र सर पेड़ पौधों से अपने लगाव को कहते हैं।
"मेरा नहीं रहा अब यह मकान
अंदर जाने लिए
मकान मालिक से मुझे
पूछना पड़ा
यहां एक पेड़ से
मिलने आया हूं
कृपया मुझे अंदर आने दें!
मेरी बात पर मकान मालकिन ने
मुंह बिदकाया लेकिन
मकान मालिक जोर से हंसा
मैंने पेड़ पूछा-
तू कितना बदल गया रे
और पहले से कितना घना
जवाब में तीन-चार पत्तियां
हिलाकर पेड़ ने कहा
और तू भी तो!
हां यार !
शादी हुई फिर बच्चे
लड़कियां अपने घर गई
अब अकेला हूं
तभी उसके तने में
एक कील गड़ी नजर आई
यहां मेरा बस्ता टंगता था
और यहां खेलता था
और यहां
और यहां
और यहां
फूट-फूटकर रोया
उस दिन मैं
और मेरे संग-संग पेड़।"
उफ़ बेहद प्यारी कविता। सच अब तो कहने को कुछ भी न बचा।
हमारे बचपन से बुढ़ापे तक के सुख दुःख के साथी ये पेड़। भले हम इनसे अपना लगाव , इनके प्रति अपना कर्त्तव्य भूल जाएँ लेकिन ये कभी नहीं भूलते। हम इन्हे कटाते हैं , फिर भी ये हमें अपनी छाँव में रखते हैं। बिलकुल हमारे माता पिता की तरह।
नतमस्तक हूँ सर मैं आपके प्रेम और आपके अपनेपन के आगे। सर आज की इस मतलबी दुनिया में जहाँ हर व्यक्ति बस एक दूसरे का इस्तेमाल करना भर जानता है , वहाँ आपसे मिले हौसले और सहयोग के लिए मैं सदा आपकी आभारी रहूंगी।
ईश्वर करे आप यूँही लिखते रहे। और अपना आशीर्वाद हम पर यूँही बनाये रखे।
नवनीत पाण्डे
रहनुमाओं ने कहा है के ये साल अच्छा है
अच्छा है सबकुछ अच्छा है , जो बुरा है वो भी अच्छा है , क्यूंकि कहते हैं बुरे के पीछे भी कुछ अच्छा है।
क्या करें ………दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है .............
मैं क्या कहूँ , जो कह रही हूँ , जो सोच रही हूँ , जाने कितनी बार कहा जा चुका है , हर बंदा जो जानता है समझता है अपनी दोनों आँखों से दुनिया को खंगाल कर देखता रहता है , सही और गलत का फर्क जानता है। और तो और गलत को सही करना भी जानता है। मगर फिर भी वो गन्दगी ढोता है।
क्यों ढोता है ? आइये इस सवाल का जवाब ढूँढ़ते हैं हमारे शतदल के उन्चालीसवे कवि श्री नवनीत पाण्डेय जी की कविताओं में।
शतदल में सम्मिलित इनकी तीनो ही शानदार कवितायेँ , " अच्छे दिन फ़ोकट में नहीं आते ", "असहमत " और "ये तैयारियां" आज के हालातों के ज़िम्मेदार रहनुमाओं पर और हम सभी की कमज़ोरियों पर गहरा प्रहार करती हैं।
अच्छे दिन फ़ोकट में नहीं आते , उफ़ कितनी बड़ी बात और कितनी सच्ची , मुफ्त में तो आजकल ज़हर भी नहीं मिलता, आप अच्छे दिन की बात कर रहे हैं।
हमें किसी ने कह दिया और हमने मान लिया के उसके आते ही अच्छे दिन आएंगे।
और उसने आते ही हमसे बड़े ही प्यार मोहब्बत के साथ कह दिया के मूर्खों -"अच्छे दिन फ़ोकट में नहीं आते " -
"तब ना समझे तो अब समझ लो अच्छे दिन
चूल्हे के धुएं तवे की रोटियां खाने से नहीं आते
अच्छे दिनों का अर्थ है
अच्छे होटल पिज़्ज़ा हट अच्छे फ़ूड प्लाजा जाने की हैसियत बनाना
गली मोहल्ले की थड़ी दुकानो को लात मारकर
कारपोरेटी घरानो की रिटेल दुकानो से सौदा मुनाफा लाने की वृत्ति विकसित करना
सौ टके की एक बात अच्छे दिन फ़ोकट में नहीं आते
उसके लिए जेबें कुछ ज्यादा और दिल खोलकर ढीली करनी पड़ती है।"
आह - और ऐसी हैसियत बनाने के लिए , ज़रूरी है , रिश्वत लेना , भ्रष्टाचारी होना। पैसा कमाना। क्यूंकि अगर अच्छे दिन फ़ोकट में नहीं आते साहब तो , पैसे भी तो पेड़ पर नहीं लगते। आप अच्छे दिनों का सपना दिखाइए , हम देश को भ्रष्टाचारी और रिश्वतखोर बनाते हैं।
तो आइये लूटते हैं , आगे बढ़ते हैं , स्वराज - लुटेरों का राज है।
वैसे एक बात और (ज़्यादा ढीली जेबें पित्ज़ा हट से सीधे फूटपाथ पर लाकर भी पटक देती है )
खैर हम आदि हो चुके हैं भेड़चाल के। हमें लीक से हटकर चलने वाले लोग अच्छे नहीं लगते है। हमें हाँ में हाँ मिलाना ही अच्छा और आसान लगता है। क्यूंकि हमारी एक ये सोच भी है के "अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता " सही है अकेला आदमी कुछ नहीं कर सकता , लेकिन एक अकेला ही अगर साहस के साथ आगे कदम बड़ा ले तो उसके साथ हुजूम जुड़ ही जाता है।
क्यूंकि एक आग सबके सीने में लगी हुई है, जो अब बस भभकने को ही आतुर है।
आइये पढ़ते हैं इनकी एक शानदार कविता -असहमत
"प्रेम किया है, पर प्रेम में अँधा कभी नहीं हुआ
श्रद्धा की है पर अंध श्रद्धा कभी नहीं रखी
अनुकरण किया है पर अंधानुकरण बस की बात नहीं रही
मैंने देखा है प्रेम श्रद्धा अनुकरणी हथियारों को
सच स्वभिमानो का बेख़ौफ़ सरेआम वध करते
फिर भी आस्थाओं के मंदिरों में पूजे जाते
हैरानी होती है जानते हुए सच
नहीं बोलते सच आँखों कानो होठों पर पट्टी बांध लेते
झूठी ईमानदारी के चोलो के मक्कारी भरे आशीर्वादों को
देव कृपा पूजा प्रसाद समझ केवल उनको हांजी हांजी हांजी में ही
पूरे हो जाते लोगो को देख
पर पता नहीं क्यों मुझ से नहीं हो पता ये सब
मैंने हमेशा सिर्फ हा को हा सही नहीं को नहीं कहने का भी सहस किया
भले ही इसे मेरी कमतरी बद्तमीजी
की कुछ हांसिल न कर पाने की भड़ास हताशा का गुबार कहा गया
ऊपर से मित्रो की ताकीद इतना सच मत बोला करो
खुद तो मरोगे ही हमें भी मराओगे
समझाइश का नहीं हुआ कभी कुछ असर मुझ पर "
हाह .......... सच कहा आपने बहुत ज़रूरी है असहमत होना भी , हाँ में हाँ मिलाना , अंधानुकरण ही तो है। और हम सिर्फ राजनीतिक ही बात क्यों करे , हम तो बचपन से ही ऐसे हैं , हमें कहा गया ये पत्थर नहीं भगवान है , शीश नामाओ , हमने माना , हमें कहा गया ये अछूत है नीची जात का है , इससे दूर रहो , हमने उससे घृणा की। हमें कहा ये जो बड़े बड़े बालो वाला साधू देखते हो , ये जो बड़ी सी कार से अभी नीचे उतरा है और अभी मंच पर विराजमान हो प्रवचन दे रहा है , ये महाराज है , भगवान का रूप , इनकी हर बात को स्वीकारो। हमने आँखे मूँद कर स्वीकार किया , हम इंजीनियर बने डॉक्टर बने ,देश विदेश घूमे मगर फिर भी गंवार के गंवार ही रहे। और इसी गंवारपन को हमने संस्कारों का नाम दे दिया। और भर दिए हमारे आने वाली पीढ़ी में। वो धृतराष्ट्र तो आँख से अँधा था , मगर हम दिमाग से हमारी सोच से अंधे हैं।
बहुत अच्छी कविता लगी सर जी मुझे आपकी ये असहमत। आपकी इस असहमति से मैं पूरी तरह सहमत हूँ।
सच कहा अपने हम हैं ही दोगले तरह के इंसान। हम हमारी सोच को परिस्थिति के हिसाब से बदल लेते हैं। कई बार ये बदलाव सिर्फ एक दिखावा भर होता है समाज में अपने स्टेटस को बनाये रखने के लिए।
ये स्टेटस , ये झूटी शान , ये समाज में इज़्ज़त , जाने कितनो की जान लेगी , जाने कितनो की बलि चढ़ाएगी।
असहमत होने के लिए बहुत बड़ा कलेजा चाहिए सर। बहुत बड़ा। अगर आप असहमति उठाते हैं तो वाक़ई आप बहुत हिम्मती हैं।
नमन है आपकी हिम्मत को आपके इन शब्दों को।
आइये पढ़ते हैं इनकी एक और शानदार कविता - "ये तैयारियां "
छोटी सी है मगर बात बहुत बड़ी कह जाती है।
" पेड़ो की शाखाएं
रस्सियाँ देख मारे डर के
कांपने थरथराने लगी
ये तैयारियां झूलों की जगह
कहीं फंदो की तो नहीं"
हाह …… बहुत सही। हाँ कुछ भी हो सकता है। वक़्त ने बस लिबास बदला है अंदर से अभी भी वो वही है। तानाशाही। छल , कपट तो रगों में बहता है। हर नज़र यहाँ फरेबी है। हर मुस्कान यहाँ अपनापन लिए हो ये ज़रूरी नहीं। हर शब्द यहाँ कई माने रखता है। सांप आस्तीनों में ही पलते हैं। और कोयल और काग भले ही एक रंग के हों , बोलते हैं तभी असल रूप में नज़र आते हैं।
वो दोहा हैना कृपाराम जी का -
उपजावै अनुराग कोयल मन हर्षित करै
कड़वौ लागै काग, रसना रा गुण राजिया
नवनीत सर एक बेहतरीन कवि के साथ पाठकनामा पत्रिका के प्रकाशक भी हैं। बोधि प्रकाशन ने जहाँ शतदल ने फेसबुक के १०० कवियों को छपा , वहीँ नवनीत सर शतदल के कवियों पर लिखी मेरी टिप्पणी को पाठकनामा में प्रकाशित कर रहे हैं।
सर आपने मेरे टूटे फूटे शब्दों को अपना स्नेह दिया इसके लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया।
ईश्वर करे आप यूँही लिखते रहें। और आप और आपकी पाठकनामा बहुत बहुत तरक्की पाएं।
नीलकमल
कलकत्ता , एक खूबसूरत सा शहर। यहां की संस्कृति , यहाँ का रहन सहन यहाँ का , पहनावा , यहाँ की बोली और यहां का साहित्य ……… उफ़ हमेशा से ही मुझे आकर्षित करता रहा है। कई बार सोचती हूँ काश के मैं बंगाली होती। काश के मुझमे भी होता वहां का वो मदमस्तपन। काश के मैं भी वैसा लिख पाती काश के मेरी लिखाई में भी वैसा रस होता जैसा के हमारे शतदल के पचासवें कवि श्री नीलकमल जी की लेखनी में है।
हाँ हमारे आज के पचासवें कवि श्री नीलकमल जी , वैसे तो ये मूलतः एक और प्यारे से शहर बनारस के हैं लेकिन फ़िलहाल कलकत्ता में कार्यरत हैं। और शतदल में शामिल इनकी कविताओं "सिंगूर" , "कलकत्ते का चूल्हा", लग्न भ्रष्ठा और "पातीराम बुक स्टाल " में कलकत्ते शहर के लिए लगाव , और अपनापन देखते ही बनता है। ख़ास बात ये है की किस तरह इन्होने किसी अन्य शहर को उसके तौर तरीकों को इतने गहराई से अपना लिया है। सच सर मैंने आपकी लिखी कविताओं में पूरा कलकत्ता घूम लिया है।
इनकी पहली कविता " सिंगूर " उन किसानो की आपबीती है जिनके हिस्से ना ज़मीन आई ना ही नौकरी। ज़मीन पर सरकार का अधिग्रहण हो गया और नौकरी का सपना टाटा के साथ ही चला गया। और किसान हाथ मलते रह गए। आइये पढ़ते हैं इस मार्मिक कविता का अंश -
"खजूर नारियल आम नीम और जामुन और लताये
अनगिन लिपटी अनाम पेड़ो से
एक अदृश्य मुक़दमे में गवाही देते खड़े हैं
पश्चम की तरफ जाता हुआ सूरज हाथ हिलाता है मेरी तरफ
ट्रैन की खिड़की से ठीक मेरी बाई और
कनखियों से हंसती दिखी एक स्त्री
जिसके माथे पर था फैला सिन्दूर
पीछे छूट चुके हैं कुछ स्टेशन
शायद दियारा या की नसीबपुर पूछता हूँ बगल वाली सीट पर बैठे एक बुजुर्ग से
आगे है कौन सा स्टेशन ?
बेहद थरथराई आवाज़ में वह बताता है सिंगूर ............ "
उफ़... क्या कहूँ , इतना खूबसूरत सा शहर और ऐसी स्थिति। ऐसा लग रहा जैसे जिस घर में रह रहे हैं जिसे बसाने के लिए सारी ज़िन्दगी लगा दी हो, वही गिरवी पड़ा हुआ है। और वो भी बिना किसी दाम के।
सच ये ज़मीन उस दुल्हन सी ही है जिसकी बरात दरवाज़े से ही लौट गयी हो। जिसके हिस्से की खुशियों के फूल खिलने के पहले ही सूख गए हों।
शायद मैं इस दुःख को कह पाने में असमर्थ हूँ , क्यूंकि ये दुःख किसी एक का नहीं हज़ारों किसानो का है।
नीलकमल जी ने सिंगूर के इस दुःख को जिस अपनेपन के साथ अपनी चार कविताओं में सहेज है , वो अतुलनीय है। वाक़ई जहाँ अपनापन है वहीँ भावनाएं जुड़ पाती हैं , वरना तो बाकी मात्र कोरे शब्द ही हैं।
आइये पढ़ते हैं सिंगूर के हालात पर ही लिखी इनकी अगली कविता -लग्न भ्रष्टा
"थम गए हैं अचानक उत्सव के गीत
वाद्य सभी भूल गए हैं अपना संगीत
सूख कर काठ हो गए माड़ो में गड़े हरे बांस
उड़ गए सारे जीवन के सुवास
धरी रह गयी डोली विदा हुए अंततः सर झुकाये सब कहार
कोहबर की दीवार पर नहीं उभरी हथेलियों की छाप
इसे दुर्घटना कह लीजिये आप
जिसके बाद बची रह गयी एक लड़की
लग्न भ्रष्ठा
और नितांत अकेली पूछती हर आने जाने वाले से
बारात कहाँ गयी कितनी दूर "
आह ............ निशब्द हूँ सर मैं ……… सच समझ सकती हूँ मैं इस दुःख को। सही नाम दिया है आपने "लग्न भ्रष्ठा"
और दुर्घटना ही तो है ये , सपने दिखा कर पल्ला झाड़ चले जाने को और क्या कहेंगे ?
समय के साथ साथ दुःख और गाढ़ा होता जा रहा है। जैसे शाम ढलते ढलते रात में बदल जाती है , ठीक वैसे ही। आंदोलन हो रहे हैं। केस दर्ज हो रहे हैं। कुछ दुर्घटनाएं , हादसे , भूले नहीं जाते। इतिहास में दर्ज जो जाते हैं। जैसे भोपाल का गैस काण्ड , आजतक भुगत रहे हैं उस त्रासदी का दुःख। मुआवज़े मिल जाते हैं। लेकिन जनजीवन तो तबाह हो जाता है। और फिर पीढ़ियां गुज़र जाती हैं , इन्साफ पाने में भी।
सरकारे बदलती रहती हैं और इंसाफ बस झूलती तराज़ू तकता रह जाता है।
सच सर कमाल का लिखे हैं आप।
एक शेर याद आ गया
ना खुदा मिला ना विसाले सनम
ना इधर के रहे ना उधर के हम
वाह रे आम आदमी , "रोज़ सपने देख लेकिन इस कदर प्यारे ना देख "
खैर ये तो बड़ा मसला था जो लाइट में आ गया। लेकिन आज भी सिर्फ कलकत्ता ही नहीं , पूरे भारत में ही फुटपाथ पर अपना जनजीवन गुज़ारते लोग मिल जायेगे। सभी की अपनी अपनी समस्याएं। और सभी की मूल जड़ है "गरीबी"
आज के आम इंसान के लिए ज़िन्दगी जीना किसी युद्ध से कम नहीं है। जीवन एक कुरुक्षेत्र सा ही है। रोज़ लड़ना है रोज़ जीना है।
आइये पढ़ते हैं एक ऐसी ही कविता- "कलकत्ते का चूल्हा"
"चूल्हे सुलगाते हे बराबर खनकती है हाथों में कांच की चूड़ियाँ
एक बारगी आँखों में उतर आता है छल्ल से पानी
बहुत धुंआं करता है यह चूल्हा
पड़ोसियों की आँखे जलती है धुंए से
मकान मालिक की सख्त हिदायत है
कि ले आना चाहिए एक स्टोव
अब मकान के आँगन से उठकर चूल्हा आ गया है सड़क पर
सड़क आखिर सरकार की है
सरकारी जगहों पर धुंआ करने पर
नहीं है रोक टोक कलकत्ते में
हवा पाकर धधकता है चूल्हा
कोयला बदल चुका है अंगारो में
लौट आता है चूल्हा रसोई में
स्त्री चुपचाप अदहन रख देती है चूल्हे पर
धीरे धीरे खदबदाता है पानी कलकत्ते का
कोयले की आंच पर "
आह सच कितनी खूबसूरती से कह दी है आपने इतनी संजीदा बात। "सरकारी जगहों पर धुंआ करने पर नहीं है रोक टोक कलकत्ते में "
कभी कभी सोचती हूँ ,सरकार की तरफ से एक ही ऐसी चीज़ है जो मुफ्त में मुहैया हुई है , वो है फुटपाथ।
हमने अधिकतर फिल्मो में देखें हैं मुंबई के किस्से। के कैसे लोग बसर करते हैं , फुटपाथों पर तो कभी , पाइप में ही घर बसा कर रह रहे हैं।
वो मुंबई की एक बड़े हिस्से के हालात का प्रतिनिधित्व करती है , और ये कविता कलकत्ते का। कहाँ है अंतर बताइये। गरीब हर जगह एक सा है। दबा कुचला हुआ।
कितनी खूबसूरत है इस कविता की शुरुआत। कितनी खूबसूरत लगती है वो खाना बनाती हुई स्त्री। और कितनी मायूस उसकी वो ख़ामोशी यूँ चुपचाप घर से सीधे सड़क पर आ चूल्हा सुलगाना।
" धीरे धीरे खदबदाता है पानी कलकत्ते का कोयले की आंच पर "
ये पानी है या खुद वो स्त्री।
निशब्द हूँ सर जी। गज़ब का लिखे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे घूम रही हूँ कलकत्ता की गलियों में।
खैर मजबूरियां हर जगह होती है। लेकिन फिर भी इंसान जीना नहीं छोड़ता। हँसाना नहीं भूलता। खुशियां तलाश ही लेता है। महँगी न सही सस्ती ही सही।
कलकत्ता के गीत यूँही इतने सुरीले नहीं हैं। कलकत्ता का वो लाल और सफ़ेद रंग का मेल यूँही इतना मनभावन नहीं है। सब रंगो का मेल से ही बनता है सफ़ेद रंग हैना। सुकून का रंग।
और नीलकमल जी की अगली कविता भी यही कहती है कि कम में कैसे ज़्यादा जिया जाता है।
आइये पढ़ते हैं इनकी अगली और बहुत ही प्यारी कविता - "पातीराम बुक स्टाल "
"कलकत्ते के खूबसूरत चेहरे का काला तिल है ये पातीराम बुक स्टाल
यहाँ मिला था वह बंगला का अद्भुत कवि कार्तिक देवनाथ
एक लिटिल मैगज़ीन के आवरण में छिपकर हाथ हिलाता
जिस पर छपा था कविता कविता
एकदम कॉलेज स्ट्रीट जंक्शन पर छोटा सा तीर्थ यह साहित्य का
ठीक इसके बगल में कॉफ़ी हाउस में
जब जब उठे तूफ़ान किसी प्याले में तो झाग यही देखा गया सबसे पहले
कई बार तो सचमुच तूफान उठे इसी छोटे से बुक स्टाल से
कल्लोल का संगीत भूखी पीढ़ी का वाद्य
कई सुखद स्मृतियों का संग्रहालय यह पातीराम बुक स्टाल
जितनी भी खूबसूरत जगहें है दुनिया में
होना चाहिए वहां एक पातीराम बुक स्टाल
हर खूबसूरत चेहरे पर चाहिए एक काला तिल "
आह कितनी खूबसूरत कविता , कितने प्यारे तरीके से लिखी है सर जी।
हाँ जानती हूँ आप सभी को एक नाम नया लग रहा है इसमें "कार्तिक देवनाथ" . . हमने निराला जी को जाना , प्रेमचंद जी को जाना , कैसे उन्होंने गरीबी में रहकर भी साहित्य सृजन नहीं छोड़ा। बस इन्ही से है "कार्तिक देवनाथ जी " जिनके लिए ये कविता लिखी गयी है। कार्तिक जी ने साहित्य को ही अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। इन्होने अपनी रोज़मर्रा के खर्च में से थोड़ा थोड़ा बचाकर एक पत्रिका निकली - वो थी "कविता कविता"
सच प्रणाम है मेरा ऐसे कवि को और उनकी साहित्य साधना को।
ये पत्रिका पातीराम बुक स्टाल पर मिलती थी। बुक स्टाल जो आज सा नहीं था , ये सिर्फ किताबे ही नहीं बेचता था , एक तरह से साहित्य रचता था। सच कहा आपने सर जी , पातीराम बुक स्टाल किसी खूबसूरत चेहरे पर काले तिल सा है।
नीलकमल जी ने कार्तिक देवनाथ जी की कविताओं का हिंदी अनुवाद भी किया है। वाक़ई सर ये एक बहुत ही अच्छा काम है। जितने निस्वार्थ भाव से कार्तिक जी ने साहित्य की सेवा की उतने ही निस्वार्थ आप भी हैं।
ईश्वर करे आप हमेशा ही ऐसे रहें। और बहुत बहुत तरक्की पाएं।
नीलोत्पल
शतदल के पचास कवियों पर लिखने के बाद जैसे ही मैंने पन्ना पलटा , मैं शून्य पर पहुँच गयी। मैंने पिछला पन्ना देखा, वहां जैसे एक सदी का अंत था और अगली सदी की शुरुवात। ये कैसी किताब है , मैं कवियों को पढ़ रही हूँ या फिर वक़्त को। क्या कोई पढ़ पाया है वक़्त का लिखा। क्या किसी ने देखा है वक़्त का और छोर। क्या कोई समझ पाया है आज तक आदि क्या और अंत क्या ? क्या जो घट चुका है उसके परे भी कुछ शेष रह गया था जो सामने आया नहीं , देखा नहीं , जाना ही नहीं , पढ़ा ही नहीं।
समय देखो समय की धार देखो , समय कैसा है , कहाँ ले जा रहा है , ....... समय के साथ है क्या , समय के बाहर है क्या ? ये सोच ही रही थी के तभी उस कोरे कागज पर एक पंक्ति उभर आई
"समय के बाहर सिर्फ पतझर है "
मैं हैरान ............ फिर मैंने देखा .............. अरे ये तो पूरी एक कविता है मगर कैसी है ये कविता हर शब्द खूबसूरत है इसका , मगर इसकी हर पंक्ति अगली पंक्ति से भिन्न। जैसे के समय का हर पल होता है … ये किसकी कविता है , कौन है ये कवि ?????
ये हैं नीलोत्पल , उज्जैन के नीलोत्पल , कालिदास और शिव मंगल सिंह सुमन जी की ज़मीन पर उगे एक नयी सदी से नीलोत्पल।
आइये मिलते हैं एक ऐसे ही निराले ,शतदल के इक्यावनवे कवि श्री नीलोत्पल से जिनकी कविताओं में इतनी ताक़त है , इतनी धार है के आप बेताब हो जायेंगे इन्हे इनकी कविताओं के परे भी और जानने को।
शतदल में छपी इनकी चार कवितायेँ -"समय के बाहर सिर्फ पतझर है ", "जाड़ा", "शब्द एक लम्बा सिलसिला है " और समुद्र। चारों ही अपनी ही तरह की निराली कृतियाँ हैं।
मुझे सबसे अच्छी इनकी समय से बाहर सिर्फ पतझर है लगी। हालाँकि इस कविता ने मुझे बहुत घुमाया भी। इसके भाव समझना ऐसा लग रहा था जैसे मैं वक़्त के पीछे भाग रही हूँ , जो कभी बूढ़ा हो जाता है कभी जवान तो कभी किसी नन्हे बालक सा। सच ये कविता ऐसी ही है , बिलकुल अलग , लेकिन जब मैंने इसका हाथ थामा , ये चुप से मेरे दिल में उतर गया। शांत सा सुकूनभरा।
आइये पढ़ते हैं इस बेहद शानदार कविता की कुछ पंक्तियाँ -
"कभी उस और भी जाओ जिधर एक पेड़
तुम्हारी पीठ की ओर चुपचाप सभी दिशाओं के लिए खुलता है"
"समय के बाहर सिर्फ पतझर है
पतझर के शब्द सुनो
सूने में हवा तेज़ चलती है
किसी बागीचे में घास के पीले तिनके
और झरे पत्तों की ख़ामोशी नैसर्गिक रखती है कलाओं को "
सच कितनी खूबसूरत और गहरी बात कह दी है नीलोत्पल जी ने। हम जिस और पीठ करके खड़े हैं उस तरफ भी एक जीती जागती दुनिया है।
एक जीता जागता पेड़ जो चुपचाप बिना आवाज़ खड़ा है , आश्रय देता है चहचहातै पक्षियों को।
एक जीता जागता पेड़ समय के साथ साथ बूढ़ा होता जाता है , और खिराता जाता है अपने पीले होते पत्ते। वो पत्ते भी चुपचाप अपनी जगह छोड़ देते हैं और नए पत्तों को अपनी जगह देते हैं। जैसे अपनी विरासत सौप रहे हों। अपना छांया का उत्तरदायित्व। और समय के साथ बह जाते हैं। बिना किसी आवाज़ के।
"झरे पत्तों की ख़ामोशी नैसर्गिक रखती है कलाओं को "
कितनी सुकून भरी कविता हैना ये।
इसी कविता का एक हिस्सा और पढ़िए -
"उन लड़को की और जो अपनी घुमावदार शैली में
उन्माद और वासना की द्वंद्वात्मकता को रचते हैं
अंत तलक वह ढह जाती है मासूम बच्चों की मुस्कान में
कभी जाओ उस और बिना हड़बड़ी के रखे हुए जूते
मुक्त करेंगे तुम्हे किसी भी दर्शन से "
उफ़ कितनी खूबसूरत बात कह दी है सर अपने …।
हम अक्सर आज के समय को कोसते हैं। आज के दौर सम्वेंदनाहीन है , आज के लोग बस खुद के बारे में सोचते हैं , और भी कई सारे वक्तव्य हमें सुनने को मिल जाते हैं , लेकिन कवि ने आज के इस दौर में भी एक खूबसूरत सी सादगी को , प्रेम को पा लिया है।
आज के इस गतिशील दौर में जहाँ हम बस भागते जा रहे हैं भागते जा रहे हैं , ज़रा ठहर के देखें बिना हड़बड़ी के , इस प्रकृति को इस हमारे साथ साथ बहती हवा को मिटटी को कण कण को , तो हम महसूस कर पाएंगे सृजनात्मकता की ख़ुशी और उसके सौंदर्य को। सच सबकुछ यहीं है।
आइये पढ़ते हैं इनकी एक और खूबसूरत सी कविता जाड़ा की ये पंक्तियाँ -
"जाड़ा सबसे मीठी स्मृति से आता है
जैसे कोई अधूरा प्रेम बरसो बाद नींद में दस्तक देता है
और ठहर जाता गर्भ में उम्मीद की तरह
मौसम की मार झेलते लोगो ने दिनों को छोटा कर दिया है "
................. आह खूबसूरत सी सर्दी। सबसे प्यारा मौसम। शीतल सा शांत सा। समय का एक और सुहाना रूप। जो जमा देता है सारी प्रकृति को। एक कंपकपी के बीच गुज़रता है सारा समय।
जम जाना जैसे ठहर सा जाना कहीं यादों का । जैसे गर्भ में संतान।
सच सर्दियों पर बहुत कवितायेँ पढ़ी हैं , मगर इतनी खूबसूरत कभी नहीं। और ना ही ऐसा महसूस किया है कभी।
"समय कांपता है प्रेम करते हुए " कितना खूबसूरत सा अहसास ..............
नीलोत्पल जी की खासियत है उनकी खूबसूरत शब्द शैली और बिम्ब। पाठक कविता के भाव तक पहुँचने के पहले उनके शब्दों की खूबसूरती में अटक कर रह जाता है।
आइये पढ़ते हैं इनकी अगली कविता "शब्द एक लम्बा सिलसिला है " में ये शब्दों के बारे में क्या कहते हैं।
"कोई नहीं बता सकता जीवन किस विचार के पीछे छिपा है
कोई नहीं जानता आखिर उन्हें जानना किस चीज़ के बारे में है
सब कुछ धराशायी महत्त्व के पीछे पनपता है
शब्द एक कोशीय है हमारी त्वचा एक आवरण है
शब्द एक लम्बा सिलसिला है जो बना रहता है
तमाम पीढ़ियों के गुज़र जाने के बाद भी "
आह............ कितनी बड़ी बात कह दी आपने सर
"कोई नहीं जानता आखिर उन्हें जानना किस चीज़ के बारे में है "
सच कहाँ जान पाये हैं हम ? बिना खुद को जाने ही खुदा बने बैठे हैं।
"बड़ी तफ्सील से चींटियाँ लाइनबद्ध रहती हैं
और अपने अंत को आरम्भ से शुरू करती हैं "
....................... निशब्द हूँ मैं सर।
सच अगर चींटियों से हम उनकी ये प्रतिबद्धता, शालीनता और एकता उधार ले ले ना तो हमारे शब्दकोष से शायद "जलन" और "कुंठा" जैसे शब्द ही लुप्त हो जाएँ। हम सीख जाएँ बोलना ही नहीं सुनना भी। और एक दूसरे पर भरोसा करना भी।
नीलोत्पल जी की अगली कविता "समुद्र" तीन खंडो में बंटी है।
"रेत के खालीपन में दबे हुए शंखो की ध्वनियां गूंजती है
आसपास बगुलों का झुण्ड गोते लगाता है
जाता है दूर आ रही गंध की तरफ
मछलियों के अंडे तैरते हैं सतह पर
प्रेम की प्रतीक्षा पूर्ण हुई"
"हवाएँ दिशाओं की चोकसी करती हैं
घोंघे समाधि की और चले गए
समुद्र यदि जंगल होता
निश्चित प्रेम का आवास जड़ों में होता "
आह कितने खूबसूरत से प्रतीक हैं। रेत और उसका खालीपन , और उसमे बजते शंख सीपियाँ , मछलियों की आस में तैरते बगुले और गहरे और गहरे में जीवन जीती और नया जन्म देती मछलियाँ। ............... जन्म देना प्रेम का अनोखा प्रतीक है।
एक फैला सा सागर और चारो तरफ पानी ही पानी और उसे बांधती हवाएँ। जाने कबसे अपनी ही जगह स्थिर से घोंघे किसी समाधी में लीन तपस्वी से।
और फिर समुद्र की किसी घने जंगल से तुलना .............
सच कहा आपने प्रेम का आवास जड़ों में ही होता है .............
वैसे देखा जाए तो इस कविता में समय के तीनो कालखण्ड दीखते हैं - भूत , वर्तमान और भविष्य भी। रेत में दबे शंख भूतकाल के प्रतीक हैं , बगुले वर्तमान हैं और मछलियों के अंडे भविष्य की और इंगित करते हैं।
सच नीलोत्पल जी इतनी खूबसूरत कविताओं के लिए आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ मैं आपकी।
आपको पढ़कर सोचने की एक नयी नज़र मिली है।
आपकी कवितायेँ आपके "समुद्र" सी ही गहरी हैं। ईश्वर करे शब्दों की ये गहराई और ये खूबसूरती यूँही बनी रहे।
नीनू कुमार
शतदल के कुछ पन्ने और मेरी खूबसूरत स्मृति में जुड़ चुके हैं। ऐसा लग रहा जैसे अंदर ही अंदर एक और शतदल खिल रहा है। सच मानिए ये अहसास मुझे एक बहुत ही एक अलग सी ही ख़ुशी देता है। कई बार मैं सोचती हूँ मैं वो प्रेमिका हूँ जो हर दो चार रोज़ में एक नया इश्क करती है।
आज फिर से शतदल की बावनवी कवियत्री नीनू कुमार जी के भावों के भंवर में जा फंसी हूँ।
लेकिन क्या करूँ ये भावनाएं बहुत बड़ी जादूगरनी होती हैं बहुत जल्दी मन को वश में कर लेती हैं।
शतदल में नीनू जी की तीन कवितायें दृश्य , काग़ज़ नहीं जो फाड़ दिया जाए और बुद्ध का सत्य शामिल हैं।
तीनो ही उम्दा स्तर की कविताएँ हैं। तीनो ही मुझे बहुत अच्छी लगी।
इनकी "बुद्ध का सत्य" देश की हर उस बेबेज़ुबान यशोधरा की व्यथा कहती जो बस किसी न किसी बहाने बस तिरस्कृत कर त्याग दी जाती हैं। कहीं धर्म की आड़ होती है तो कहीं जीविका की ।
ईश्वर से प्रेम हमारे आदिकाल के काव्य का एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। खैर प्रेम होता ही ऐसा है के उसके आगे दुनियादारी और जुड़े लोगों की कोई कीमत नहीं रहती। यह प्रेम अध्यात्म का रूप ले लेता है। एक तरह से देखा जाए तो प्रेम इंसान को स्वार्थी ही बना देता है।
मीरा ने कृष्ण को चाहा। इतना के वे अपना घर बार भुला बैठी। आज हम उनके ही भजन गाते हैं। लेकिन इस प्रेम ने उनके पति राणाजी के प्रेम को तो जैसे कहीं छुपा ही दिया। जो ना दुनिया की नज़र में आया ना मीरा के। हालांकि देखा जाए तो उनका त्याग मीरा से बड़ा था।
ऐसे ही यशोधरा ……… सिद्धार्थ ने जीवमात्र के दर्द को अपनाया और बुद्ध हुए। लेकिन क्या कभी अपनी छोड़ी हुई पत्नी का दर्द समझ सके ??..........
ऐसे ही सवालों का जवाब मांगती है नीनू जी की ये कविता - "बुद्ध का सत्य"
आइये पढ़ते हैं।
"ज़ख़्मी कबूतर ने, तुम्हें ऐसा घाव दिया,
कि उसका ज़ख़्म. तुम्हारी आँखों से बह निकला।
पहली बार जब दुख देखा,तुम्हारी रूह तक काँप गयी।
बीमार को देख, तुम्हारी अंतरात्मा तक बीमार हो गयी।
मौत ने ऐसा झंझोड़ा,कि तुम सत्य की खोज में निकल पड़े।
मुड़ कर एक बार नहीं देखा,कि मैं, यशोधरा, स्तब्ध, निशब्द,
तुम्हें रोक भी न पाई।
तुम बुद्ध हो गये।
मेरी न ख़त्म होने वाली खोज, आरम्भ हो गयी।
तुम दुखों का अंत,ढूँढने निकल पड़े।
अकेलेपन से जुड़े,मेरे दुखोँ का प्रारंभ हो गया।
तुम शाँत हो गये,
मेरे ग़मों की उग्रता को,
कोई देख नहीं पाया।"
उफ्फ्फ .............. क्या कहें। कहिये किसे दोष दें ? बुद्ध ने लोगों में सेवा और दया की भावना जगाई। समझाया के हर जीव में प्राण है। बिना किसी भेदभाव के जीवमात्र के दर्द को समझा। मगर यशोधरा ……… ? क्या उसके दर्द का उसके दुःख का अहसास बुद्ध को कभी हुआ ?
बुद्ध ईश्वर की तरह पूजे गए। यशोधरा ने भी तो अपना जीवन एक तरह से दान ही किया। फिर उसके त्याग का मान क्यों नहीं रखा गया …
दरअसल ये हमारी मानसिकता ही बन गयी है। हम एक ही ढर्रे के साथ चल रहे हैं। हम बस वो देखते हैं जो सामने है , कभी उसके पीछे देखने की कोशिश नहीं करते। जानना ही नहीं चाहते के इस चमकते सूर्य में जाने कितने और सूर्य धधक रहे होंगे।
जो दिखाया जा रहा है वो ही देखते हैं।
आइये पढ़ते हैं नीनू जी की अगली कविता -दृश्य
"कई दृश्य,
मेरी आँखों के सामने,
घटते, बढ़ते।
छू जाते मन को कुछ,
अछूता रहता मन कभी।
उस एकमात्र दृश्य में,
मेरी उपस्थिति,
कभी सम्पूर्णता से दर्ज नहीं हो सकी।
कभी आधी, कभी पौनी,
कभी केवल स्पर्श भर।"
"मैं जान नहीं पायी कभी।
उस दृश्य की,
सिमटी हवाओं के,
रुदन से
भला कैसे परिचित हो सकती हूँ मैं?
जिस दृश्य में मैं कैद हूँ,
वही अपने आप में,
कई बेचैनियों से गुजरते हुए जीवन का प्रतिबिम्ब,
पूर्णतया समेटे हुए,
बिल्कुल ऐसे कि
बादलों से घिरी साँझ के समय,
देख रही हूँ उस दृश्य का घटना और बढ़ना।"
कितना कुछ कह जाती है ये कविता ..........
हमारे सामने से रोज़ ही ज़िन्दगी किसी फिल्म सी गुज़र रही है। हम अपनी आँखों के सामने सब कुछ घटता बढ़ता देख रहे हैं। देख रहे हैं जीते मरते लोग। देख रहे हैं गुज़रता हर चाहा- अनचाहा। कभी मन कसमसा के मुंह फेर लेता है और कभी बस ढूँढता है अपनी उपस्थिति ।
कई दफा हम उस दृश्य में बस कठपुतली की तरह नज़र आते हैं , या के किसी शोकेस में सजी तस्वीर से। जिसकी न खुद्की कोई राय है न कोई वजूद।
और यही से आने लग जाती है रिश्तो में खटास। जब हमारे लिए किसी का होना न होना बराबर सा हो जाता है तो वो वहां रिश्ता रह ही नहीं जाता।
जिन आँखों में कभी हमने हमारे लिए इंतज़ार देखा हो उन्ही आँखों में यदि हमें बेरुखी नज़र आये तो किस हक़ से हम उन आँखों में अपने सपने महफूज़ रखने का सोच सकते हैं।
दाम्पत्य जीवन के इसी ढलान को नीनू जी ने अपनी अगली कविता" काग़ज़ नहीं जो फाड़ दिया जाए......" में व्यक्त किया है।
"सोचा तो पाया कि
वे एक-दूसरे से चिपके पुराने काग़ज़ की तरह थे,
जो भीगकर सडक़ पर बिखरे थे।
एक-एक साँस,
साथ खींची और छोड़ी थी।
वक़्त की लकीरों ने,
थोड़ी देर को फक़त रोशनी की थी।
फिर बुझ सा गया था सब।
उनके अंदर तक उतर गयी थी,
रोशनी।
गहरी हो गयी थी,
भीतर तक समां।
फिर हल्की होती गयी।
दोमुँहाँ रोशनियों में,
बट से गये थे दोनों।
अचानक,
काले आसमान से छिटक कर,
अँधेरा,
हल्की धूल की तरह,
इधर से उधर मँडराने लगा।
कुछ अँधेरा,
पास के कोने में बच्चे की तरह दुबका था।
मन को घेरती आशंका और उससे पैदा हुई अस्थिरता,
खुद से खुद को,
जुदा करती,
जलती-बुझती रोशनी,
भीतर की चमक,
ख़त्म करती,
जाने मन के किस कोने में,
छिपी बैठी थी।
इसी ताने-बाने में,
याद आया,
काग़ज़ का वो टुकड़ा,
बांधे रखा था जिसने,
आज जाने किस
भूल-भुलैयां में उन्हें छोड़,
हवा के झोंके संग,
बह गया था।"
आह एक बेहद ही प्यारी कविता। अक्सर देखने में आता है है ऐसा रिश्तों में। जो लोग साथ जीने मरने की कसमें खाते हैं। जो एकदूसरे के बिना एक पल नहीं रह सकते। वे ही एक वक़्त ऐसा आता है की एक साथ रहकर भी अपनी अपनी ज़िन्दगी अलग अलग बसा लेते हैं। सोचती हूँ उस वक़्त वो प्रेम कहाँ चला जाता है। क्या प्रेम महज़ एक उन्माद है। जिस उम्र में हमें सबसे ज़्यादा किसी साथी की ज़रूरत होती है उसी उम्र में दोनों एक दूसरे से दूरिया बना लेते हैं। कैसे पड़ जाता है सूखा रिश्तों की ज़मीन पर?? कहाँ खो जाती है वो प्यार भरी नमी???
आइये फिरसे सींचते हैं अपने कुम्हलाये हुए रिश्तों को। एक बार फिरसे टटोलते हैं गुज़रे वक़्त को। याद करते हैं वो रूठना मनाना और वो आँखों ही आँखों में होती बातें।
इन बेहद खूबसूरत कविताओं के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया नीनू जी। ……।
ईश्वर करे आप यूँही लिखती रहें और आपके विचारों की भावनाओं की ज़मीन सदा हरी भरी रहे।
नीरज दइया
ये कल्पनाओं का संसार और कवितायेँ। जब से जीवन शुरू हुआ तभी से कल्पनाओं ने भी जन्म लिया। हमने जीवन की शुरुआत ही कल्पना से की। और इन्ही कल्पना के ज़रिये जानना चाहा ज़िन्दगी को , दुनिया को। देखा जाए तो सच का आधार कल्पना ही रहा है।
हमने कल्पना की , और निकल पड़े सच की तलाश में। और जब सच जाना तो ख़ारिज कर दिया कल्पना को। कई दफा यूँ भी हुआ सच जानकर भी हमने उसे नहीं अपनाया। कल्पना का स्वाद हमें सच से ज़्यादा मीठा जो लगा।
आइये आज मिलते हैं ऐसे कवि से जो कहते हैं "नहीं मैं नहीं रीझूंगा सूरज चाँद की गुड़कती गेंदों पर जानना चाहता हूँ मैं "
जी हाँ आज के हमारे शतदल के तिरपनवे कवि हैं श्री नीरज दइया जी। शतदल में शामिल इनकी चारों कवितायेँ "बच्चे हैं पहाड़","जानना चाहता हूँ मैं " , "नींद के भीतर बाहर " और "पन्क्तियों में रविवार " जैसे इनके किसी बच्चे की तरह साफ़ मन का आइना है।
आपकी चारों ही कवितायेँ मुझे बेहद पसंद आई। आज पढ़ते वक़्त यूँ लगा जैसे मेरा हर बात को जानने की उत्सुकता लिए बचपन फिर से जी उठा।
सर , आपकी कविता "बच्चे हैं पहाड़" बेहद ही प्यारी लगी मुझे। सच आपने तो इन खामोश पत्थरों को भी बोलना सिखा दिया। और वो भी कितने प्यार से।
यही तो प्रकृति से सच्चा प्रेम है के फूलों के सूखने भर से हमारी आँखे नम हो जाएँ।
आइये मुस्कुराते हुए पढ़ते हैं ये कोमल सी कविता -"बच्चे हैं पहाड़ "
"पहाड़ पर चढ़ा आदमी चिल्लाता है ज़ोर से
जिसे वह पुकारता है ,पहाड़ भी पुकारते हैं उसे
उसके साथ
पहाड़ चाहते हैं मिल जाए वह उसे, वह चाहता है जिसे
कहता है मेरा मित्र -बच्चे हैं पहाड़
वे अपने आप नहीं बोलते, देखो मैं समझाता हूँ तुम्हे
मैं बोलूंगा -एक पहाड़ भी बोलेंगे -एक
फिर वह हंसने लगा हंसने लगे पहाड़ भी "
आह कितनी खूबसूरत है ये कविता। कितनी प्यारी। सच ऐसा लगा जैसे मैं किसी पहाड़ की ही उंगली थामे खड़ी हूँ और पुकार रही हूँ किसी ऐसे का नाम जो मुझे मिलना नहीं। फिर भी मैं खुश हूँ आती हुई प्रतिध्वनि के साथ। लग रहा है के जैसे कोई तो मेरा साथी है जो चाहता है "मिल जाये उसे वो जिसे वो चाहता है "
सच सर जी बेहद ही प्यारी कविता है।
नीरज सर की एक खास बात और बताऊँ जैसे इन्होने हिंदी भाषा से प्रेम किया उससे कई ज़्यादा प्यार इन्होने अपनी राजस्थानी भाषा को भी दिया। नीरज सर सिर्फ नाम को ही प्रेम नहीं करते , इन्होने राजस्थानी भाषा को के साहित्य को आगे बढ़ाया और अपने खूबसूरत शब्दों से उसे संवारा भी।
कवि का उत्सुक मन कल्पनाओं के संसार से सिर्फ प्रेम करना ही नहीं जानता , बल्कि उसके पीछे के रहस्यों को भी जानने की कोशिश करता है। धरती, आकाश और इस संसार के निर्माण को लेकर जाने कितनी ही लोक कथाएं गढ़ी गयीं। ये जानते हुए भी के सब झुठ है फिर भी हम इन्हे बड़े ही चाव से सुनते हैं। और अंदर ही अंदर सोचते हैं काश के ये सच होता।
लेकिन कवि इन्ही कल्पनाओं इन्ही मिथकों से निकल कर संसार का सच जानना चाहता है। आइये पढ़ते हैं ये कविता -"जानना चाहता हूँ मैं "
"सूरज चाँद की गुड़कती गेंदों पर नहीं रीझूंगा मैं
जानना चाहता हूँ मैं शेषनाग के फन पर टिकी हुई है या
किसी बैल के सींगों पर यह धरती
जानना चाहता हूँ मैं
कि मेरी जड़ें ज़मीन में हैं या आकाश में
किस डोर से बंधा हुआ हूँ मैं
जानना चाहता हूँ मैं
मैं वन वन भटकूंगा या पंख लगा कर उड़ूंगा
आकाश में किसी अन्य की आँख से
जानना चाहता हूँ मैं
किसी बैया राजा की टांगों पर है या
किसी कृष्ण की अंगुली पर यह आकाश
बिरखा बादली या इन्द्रधनुष से नहीं रीझूँगा मैं
जानना चाहता हूँ मैं "
आह सच बेहद ही प्यारी कविता - यूँ लगा जैसे किसी बच्चे ने चाँद के मामा होने का प्रमाण मांग लिया है।
सच जिस दिन हमारी मन की "यह क्या है " जानने की उत्सुकता समाप्त हो जाए समझ लेना चाहिए हमारे अंदर छुपा वह बच्चा मर गया है।
नीरज जी की अगली कविता "नींद के भीतर बाहर" भी एक बेहद मासूम सी कविता है। नींद, जो की खुद ही अपने आप में एक बहुत बड़ा रहस्य है। कहते हैं उस वक़्त भी हमारा मन सबसे ज़्यादा सक्रीय होता है। जैसे किसी अवचेतन अवस्था में हो। जमा रह जाता है नींद में ही कहीं बहुत कुछ भीतर ही भीतर।
"उचटी हुई नींद के बाद जब लगती है आँख
अटकी रहती हो तुम भीतर बहार
जैसे नींद में वैसे ही जागते हुए
नहीं चलता मेरा कोई बस
मैं जान ही नहीं पाया ,कब उचटी नींद कब लगी आँख "
क्या कहूँ ................ सच कई दफा होता है ऐसा। जिसे दिन भर हम भुलाये रहते हैं वो ही ख़याल नींद में आकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा जाते हैं। समझ ही नहीं आता के हम जाग रहे हैं या सो रहे हैं।
मैं जान ही नहीं पाया ,कब उचटी नींद कब लगी आँख "
सच कुछ ख्यालों को भूलना बहुत ही मुश्किल होता है। मुए, नींद कड़वी कर जाते हैं आ करके।
जाने क्या क्या बुनते रहते हैं हम , कई दफा मन किसी एक सूक्ष्म बिंदु पर अटक जाता हैं।
और नीरज जी ने अपनी कविता में इसी ठहराव को रविवार का नाम दे दिया है। हैना प्यारी बात। आइये पढ़ते हैं इनकी एक और प्यारी सी कविता -पंक्तियों का रविवार
"लिखते हुए मैं नहीं जानता
कविता की एक पंक्ति
क्या होगी अगली पंक्ति
कुछ भी हो सकता है
आने वाले समय में यह भी हो सकता है कि खाली चला जाए हर वार
कविता में पंक्तियाँ जब चाहे मना लें रविवार "
हाहा सच बेहद ही खूबसूरती और सहजता से आपने उस कठिन समय को भी रच दिया जिस वक़्त कोई ख्याल शब्दों में ढलने को तैयार ही नहीं होता। जाने कितनी दफा पीटा है इन ख्यालों के आगे मैंने अपना सिर।
ख़याल भी तो बच्चों की तरह ही होते हैना।
सर, आज आपको पढ़कर यूँ लगा जैसे मैंने अपना मन पढ़ लिया। मुझे मुझसे मिलाने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया नीरज सर जी ....
ईश्वर करे आपके शब्दों का ये भोलापन सदा यूँही बना रहे। आप यूँही लिखते रहें और खूब तरक्की करें । बस यही कामना है।
निर्मल गुप्त
आजकल बहुत सी कविताओं में संवेदनाओं की जगह ज्ञान ने ले ली है। याने सभी उद्धव हुए बैठे हैं , अब कृष्ण कोई न रहा।
मेरा ऐसा सोचना भर था के मुझे शतदल के दो सो बयान्वे पन्ने पर चौपनवे कवि निर्मल गुप्त जी मुस्कुराते हुए मिल गए।
इनकी कवितायेँ पढ़ कर यकीन हो गया की सम्वेंदनाएं छुपी रह सकती हैं , लेकिन कभी मर नहीं सकती।
सच बिना संवेदनाओं के कविता तो जैसे मृत शरीर सी है। आइये पढ़ते हैं निर्मल गुप्त जी की शतदल में शामिल खुल कर सांस लेती चार खूबसूरत कवितायेँ "तब समझ लेना" , "तकिया " , "चाहत " और "रात के दस बजे" .
तब समझ लेना
,,,,,,,
"रोटी का पहला कौर तोड़ते हुए
जब खेत खलिहान में लहलहाती
दूध से भरी गेहूं की बालियाँ याद न आयें .
गर्म दूध को पीने से पहले
फूंक मार कर उसे ठंडाते हुए
गाय के थन में अपना जीवन टटोलते
बछड़े का अक्स सामने न उभरे ."
"रात के घुप्प अँधेरे में
सुदूर गांव से आती
सिसकियाँ और मनुहार
सुनाई देनी कतई बंद हो जाएँ .
गर्मागर्म जलेबी को खाते हुए
गांव वाली जंगल जलेबी का
मीठा कसैला स्वाद जिह्वा पर
खुदबखुद न तिर आये . .
तब समझ लेना
तुम चले आये हो
अपने घर बार से दूर
इतनी दूर
जहाँ से वापस लौट आने की
अमूमन कोई गुंजाईश नहीं रहती ."
आह ..... कितनी खूबसूरत कविता .... सही कहा सर आपने जिस दिन हम इन छोटी छोटी खुशियों को और इन नन्हे नन्हे दुखों को भूल जायेंगे ना जिसे ये दिल सहेजे बैठा है समझेंगे हम इंसान नहीं रहे पत्थर के हो गए हैं।
हम हमारी महत्वाकांक्षाओं के चलते अपनी ज़मीन से अपनी जड़ें उखाड़ तो लेते हैं लेकिन एक वक़्त आता है जब तरस जाते हैं जुड़ाव को। उस लगाव को। हम जीतने की कोशिश में जाने कितनी दफा हारते हैं। फिर भी दिल को तसल्ली नहीं मिलती। ये जीत ज़िद होती है हमारी। जो हम किसी भी हाल में बस छीनना चाहते हैं। हम पा तो लेते हैं वो मुकाम जो हमें चाहिए था मगर अपनी असल खुशियों और सुकून से इतनी दूर निकल आते हैं कि-
"जहाँ से वापस लौट आने की
अमूमन कोई गुंजाईश नहीं रहती ."
खैर अगर हमारे पथराए दिल में जज़्बात ज़रा भी बाकी हो तो पलट आना मुश्किल नहीं होता।
चलिए आइये पढ़ते हैं एक और बेहद प्यारी सी कविता "तकिया "
बड़ा ही करीबी साथी है ये तकिया। बचपन से आज तक के हर दुःख का हर ख़ुशी का। कभी कभी सोचती हूँ इस लुगलुगे से तकिये में रुई भरी है या मेरे जज़्बात हैं सीले हुए ।
ये रुई से जज़्बात जितनी जल्दी सीला जाते हैना उतनी ही जल्दी आग भी पकड़ लेते हैं। और कभी कभी इतने घुट जाते हैं की सड़ांध मारने लगते हैं। ज़रूरी हो जाता है धूप लगाना इन्हे।
आइये देखें तो हमारे निर्मल जी के तकिये में छुपे जज़्बात क्या कहते हैं ....
"मैंने अपने तकिये पर
सिर टिकाये टिकाये अनुरोध किया
भईया भूलना मत
नींद और सपनों की फ़िक्र किये बिना
मुझे अल्लसुबह ही जगा देना
कल मुझे भरपूर जिंदगी जीते हुए
अनेक जरूरी काम निबटाने हैं .
मैंने अपने तकिये पर
हमेशा बहुत भरोसा किया है
और उसने मुझे कभी निराश नहीं किया
वह मेरे हर राज का राजदार है
उस पर अंकित है
मेरी आत्मकथा की हर इबारत
गम और जूनून की तफ़सील के साथ .
मैंने अपने तकिये पर
लिख रखा है अपना शोकगीत
इस यकीन के साथ कि मेरे बाद
जिन्दा बची नस्लें इसी पढ़ेंगी
और शोकाकुल होने की
वजह न पाकर खिलखिला पड़ेंगी .
मैंने अपने तकिये पर
अगले सात जन्मों की यात्रा का
मानचित्र टांक रखा है ."
आह बेहद खूबसूरत ............
"नींद और सपनों की फ़िक्र किये बिना ,मुझे अल्लसुबह ही जगा देना "
सच कहा सर कई दफा मैं भी यही सोचती हूँ के ज़िन्दगी कम ना पड़ जाए , जाने कितने काम बाकी हैं अभी, अधूरे छूटे काम रोज़ ही मुझे मुंह चिड़ाते हैं। चाहती हूँ ये जो लोग अभी पत्थर उठाये घूम रहे हैं आखरी वक़्त मुझे मेरे दोस्तों में शामिल मिलें।
अभी जाने कितनी बातें ऐसी हैं जो मेरी आँखें में भर आती हैं और मैं तकिये से कह दिया करती हूँ। क्यूंकि उन्हें समझने वाला कोई है नहीं। कई दफा मैं भी यही सोचती हूँ सर की-
"मैंने अपने तकिये पर लिख रखा है अपना शोकगीत
इस यकीन के साथ कि मेरे बाद जिन्दा बची नस्लें इसी पढ़ेंगी"
लेकिन क्या पता वे भी इसे समझ पाएंगे या नहीं , क्या पता उनके समझने तक ये सीले जज़्बात ही पथरा जाएँ ....
फिर भी मेरे प्यारे तकिये.....
"नींद और सपनों की फ़िक्र किये बिना ,मुझे अल्लसुबह ही जगा देना "
मुझे भी कई काम निपटाने हैं ....
इनकी हर कविता ऐसी लगती है जैसे एक दूसरे से कहीं न कहीं जुडी हैं। पहली कविता में हमने जज़्बात जानने चाहे की बचे हैं भी या नहीं। दूसरी कविता "तकिया" में हमने उन जज़्बातों को चुप चाप छुपा हुआ पाया। अब अगली कविता चाहत - देखें तो ये क्या कहती है ………
चाहत जो कभी हमारी ज़िद हुई तो कभी बस एक आस सी। कभी बदल गयी तो कभी मरते दम तक साथ रही, जीवनसाथी सी।
मगर वक़्त के साथ इंसान बदलता है , सोच बदलती है , और उसकी चाहत भी उसकी सुविधाजनक क्षेत्र पर निर्भर हो कर रह जाती है।
आइये पढ़ते हैं एक और निराली कविता - "चाहत"
"हमें अच्छी लगती है
बालकनी की रेलिंग पर
फुदक फुदक कर चहकती चिड़िया
लेकिन तभी तक
जब तक वह अपने बसेरे की जिद में
घर के किसी रौशनदान पर
बरबस अपना हक न जताने लगे . .
हमें अच्छी लगती है
घर आंगन में पसरी हुई
तेजतर्रार सुनहरी धूप
लेकिन तभी तक
जब तक हम देख पायें
एयरकंडीशन कमरे की खिड़की से
सड़क पर चलते पसीने में लथपथ राहगीरों को ."
आह .... कितनी सटीक बात कह दी ना वो भी बिना किसी झोल के। और कितना बड़ा सच है ये हमारा, जिसे हम जान के भी अनजान बने फिरते हैं। हमें हर वो चीज़ अच्छी लगती है जिससे हमें ज़रा भी तकलीफ न हो। हम बिल्लियों के , फुदकती चिड़ियों के हमारे कंप्यूटर पर वॉलपेपर तो रख सकते हैं लेकिन उनकी शैतानियों को उनके हमारी ज़िन्दगी में दखल को बर्दाश्त नहीं कर सकते।
और ये देखिये .................
"हमारे भीतर चाहतों का अजायबघर है
लेकिन उसमें कुछ भी ऐसी नहीं
जिसके वहां होने का कोई कारण न हो
ध्यान से देखोगे तो दिखेगा
उन सबके साथ नत्थी हैं
हमारी क्रूरताओं के पारदर्शी दस्तावेज़ ."
उफ़ ....... छिद गया ना दिल। हो गया ना छलनी। यही है न सच मेरा, आपका, हम सबका। क्या वाक़ई हम इतने क्रूर हैं ?
नहीं करते ना हम समझौते। किसी से भी किसी भी हाल में। जब तक मतलब है बस तब तक का साथ ।सब देखते हैं , सब समझते हैं , कराह कानो तक पहुँचती भी है , मगर पता नहीं दिल पर असर क्यों नहीं हो पाता। हम पहले तो ऐसे नहीं थे ना। पलट कर देख ही लिया करते थे भीड़ में हमारे पैरों से किसी के कुचले हुए पांवो को । मांग लिया करते थे आँखों ही आँखों में माफ़ी। आज क्या हुआ है हमें क्यों बस बढ़े जा रहें हैं आगे ही आगे एक दूसरे को पछाड़ते हुए। कैसी दौड़ है ये के ठहर कर पीछे देखने का वक़्त ही नहीं देती। सोचते ही नहीं के क्या छूट गया है , क्या टूट गया है। आआह ………
इस दुःख को कलेजे से लगा, आपको निर्मल जी की चौथी कविता "रात के दस बजे " पूरी की पूरी सुना रही हूँ। इस कविता को की हर लाइन अपने आप में सम्पूर्ण है और हमारे अधूरेपन का बोध कराने में पूरी तरह से सक्षम है ।
आइये पढ़ते हैं और महसूसते हैं ये कविता -
"रात के सिर्फ दस बजे हैं
और शहर में बकायदा रात हो चुकी है
जिसके बारे में धारणा यह है कि रात होती ही इसलिए है
ताकि जैसे तैसे पेट को भर लिए जाने के बाद
चारपाई पर औंधे मुहँ गिर कर सोया जा सके
अगली सुबह उठने वाले सवालों बेपरवाह
किसी भी तरह की उम्मीद को
झूठे बर्तनों की तरह कोने मे दरकिनार करते हुए .
रात के सिर्फ दस बजे हैं
जिंदगी के कुछ अपरिहार्य सबूतों के सिवा
अधिकांश साक्ष्य गायब हो चुके हैं .
चंद सिरफिरे लोगों के मस्तिष्क की हांड़ी में
अँधेरे के खिलाफ बगावत के पुलाव
ये लोग फर्ज़ी सपनों के खिलाफ
लामबंद होने की कोशिश में हैं .
रात के सिर्फ दस बजे हैं
राज्य के गुप्तचर गली गली घूम रहे हैं
जागते हुओं का सुराग सूंघते
प्रत्यक्षतः सोये हुए शहर की धड़कन में
विस्फोट से पहले की टिक - टिक सुनते
लोगों की नींद पर लगा है सवालिया निशान .
रात के सिर्फ दस बजे हैं
शहर के घंटाघर पर लगी घड़ी
सदियों से दस बज कर दस मिनट पर अटकी है
यह समय यहाँ से होकर कब गुजरा था ,
दिन में बीता था या रात में
किसी को न तो पता
और न जानने की दिलचस्पी .
रात के सिर्फ दस बजे हैं
अपने बसेरे से भटक कर
उड़ता हुआ कबूतर
जा बैठा घड़ी की सुईं पर
और इतिहास के पन्नों में अटका हुआ शहर
एक मासूम परिंदे की नादानी से
अनायास जाग उठा है .
रात के सिर्फ दस बजे हैं
लोगों को नीम अँधेरे में सुनाई दे रही है
भोर के आने की आहट और
एक कबूतर की फड़फड़ाट ."
................ रात का अकेलापन ज़िन्दगी का अधूरापन और यह कविता अगर साथ हो तो सुबह का इंतज़ार ही ना रहे मुझे।
रात में कई रिश्ते जुड़ते है , और कई टूट भी जाते हैं। सभी को समाये हुए है रात अपने अंतस में।
ये १० बजकर १० मिनट वाली मुस्कान अक्सर जिस पहर में रुंआसी हो जाती है गहराना शुरू हो जाती है रात , गहरी और गहरी।
आइये चुप सी इस रात को यही छोड़ें , इकठ्ठा करें अपनी बिखरी संवेदनाओं को और उठा ले झोला दिन का। सूरज आ चुका है वसूलने ज़िन्दगी का कर।
निर्मल सर सच मैं भूल ही गयी थी इन्हे पढ़ते पढ़ते के ये आपकी कवितायेँ हैं। यूँ लगा जैसे मेरे ही मन की बातें हैं सारी।
आप यूँही लिखते रहें। ताकि संवेदनाएं बरकरार रह सके।
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