पाठकनामा
- पाठकनामा Pathhaknama
- मित्रों! एक शुभारंभ लिखने-पढने और लिखे-पढे को जांचनेवालों के लिए। हम सब जानते हैं.. लिखा बहुत और बहुत जा रहा है, लेखक-लेखन भी बहुत सरल-सुलभ होता जा रहा हैं लेकिन विडंबना के साथ इसका एक बहुत बड़ा दूसरा पहलू और प्रश्न कि पढा कितना और क्या जा रहा है? पाठकनामा यही जानने और जानकारी देने का प्रयास है जिसमें हम आप सभी के सहयोग और सहभागिता से लेखक और पाठक के बीच एक संवाद स्थापित करने का उपक्रम करने का सद्प्रयास करेंगे। पाठकनामा में लेखक , प्रकाशक अपनी कृति के बारे में तथा आलोचक, पाठक अपनी पढी किसी लेखक की कृति के बारे में अपने विचार, समीक्षा, आलोचना यहां साझा कर सकता है। कृति की समीक्षा, आलोचना, पाठकीय टीप्पणी मय कृति कवर,प्रकाशन विवरण पाठकनामा में भेजी जा सकती है या समीक्षा, आलोचना के लिए लेखक, प्रकाशक अपने प्रकाशन भी दो प्रतियां पाठकनामा को भी भेजी जा सकती है। पाठकनामा केवल एक निरपेक्ष मार्ग है पाठक को किताब तक पहुंचाने और पढने के लिए प्रेरित करने का। इस संदर्भ में और सार्थक महत्त्वपूर्ण सुझाव आमंत्रित है.. अपनी पुस्तक के कवर की फ़ोटो, की गयी आलोचना-समीक्षा आप editor.pathhaknama@gmail.com को भेज सकते हैं ।
Friday 27 November 2015
मशीन (कहानी) - वंदना देव शुक्ल
Email – shuklavandana46@gmail.com
नाम – इस्नावती (तस्वीर )
Friday 20 November 2015
बिना हासलपाई उचटी हुई नींद - डा. नीरज दइया
मित्रो! पाठकनामा में आज प्रस्तुत है साख, देसूंटो तथा पाछो कुण आसी (कविता-संग्रह), निर्मल वर्मा तथा अमृता प्रीतम की किताबों के राजस्थानी में अनुवाद। "आलोचना रै आंगणै" (2011), “बिना हासलपाई (2014) "जादू रो पेन" बाल कथाएं, "सबद-नाद" 24 भारतीय कवियों की कविताओं के राजस्थानी-अनुवाद, उचटी हुई नींद (हिन्दी कविताएं) तथा मंडाण संपादन राजस्थानी के 55 युवा कवियों की कविताएं (2012) आदि कृतियां राजस्थानी और हिन्दी को देनेवाले हिन्दी- राजस्थानी दोनों में साधिकार लिखनेवाले युवा कवि, आलोचक, बाल साहित्यकार डा. नीरज दइया के सद्य प्रकाशित राजस्थानी आलोचना संग्रह ’बिना हासलपाई’पर वरिष्ठ कवि- आलोचक भवानी शंकर व्यास व हिन्दी काव्य संग्रह ’उचटी हुई नींद’ पर विजय शंकर आचार्य द्वारा लिखित समीक्षा आलेख
१
डॉ. नीरज दइया की आलोचना-दृष्टि और सृष्टि - भवानीशंकर व्यास ‘विनोद’
आलोचना बौद्धिक प्रकृति का साहित्यिक-सांस्कृतिक कर्म है अतः आलोचक का नैतिक दायित्व बनता है कि वह किसी कृति की विषद व्याख्या और तात्विक मूल्यांकन करते हुए उसमें व्याप्त बोध की अभिव्यक्ति और उसके निहितार्थ को समाने लाए। उसका यह भी दायित्व है कि वह आज के जटिल समय में किसी कृति की समग्रता को इस प्रकार प्रस्तुत करे कि पाठक की समझ का विकास हो और वह बिना किसी अतिरिक्त बौद्धिक बोझ के रचना का आस्वाद ले सके। काल के अनंत प्रवाह में कृति की अवस्थिति की पहचान ही आलोचना है।
सही दृष्टि वाले आलोचक के मन में कुछ प्रश्न हमेशा कुलबुलाते रहते हैं। जैसे आलोचक के इस अराजक और अविश्वसनीय युग में वह कैसे अपनी तर्क बुद्धि और विवेक का उपयोग करे? निरपेक्ष तथा तटस्थ किस प्रकार रहे? सच कहने व किसी रचना के कमजोर पक्षों को उघाड़ने का साहस कैसे करे? और परंपरा एवं निरंतरता के बीच समीकरण कैसे बिठाए? ये कुछ बुनियादी प्रश्न हैं जिनसे पूर्वाग्रह रहित आलोचक का भिड़ना होता रहता है। आलोचना की परंपरा में दो नाम निर्विवादित रूप से उभर कर आते हैं। इनमें पहला नाम है आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का तथा दूसरा है डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी का। आचार्य शुक्ल कृति को केन्द्र में रखकर मूल्यांकन करते थे। वे कृतिकार से चाहे वह कितना ही दिग्गज क्यों न हो, प्रभावित हुए बिना अपना निर्णय दिया करते थे।
उधर डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी भी कृति को तो केन्द्र में रखते थे पर रचना में निहित सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, दार्शनिक व मनोवैज्ञानिक संदर्भों में भी सहज रूप से संचर्ण करने में नहीं हिचकिचाते थे। संचरण के बाद वे कृति पर फिर से उसी प्रकार लौट आते थे जैसे कोई संगीतज्ञ लम्बे आलाप के बाद सम पर लौट आता है। इन दोनों दृष्टियों में आलोचना के जो गुणधर्म सामने आते हैं वे इस प्रकार हैं- कृति घनिष्ठता, आस्वाद क्षमता, संवेदनशीलता और प्रमाणिकता। इसके अलावा एक प्रकार का खुलापन, चारों ओर से आने वाले, चिन्तन का स्वागत, प्रस्तुति का पैनापन तथा पक्षधरता के स्थान पर पारदर्शिता का प्रदर्शन आदि भी स्वास्थ आलोचना के महत्त्वपूर्ण घटक हैं।
मेरे सामने डॉ. नीरज दइया की आलोचना पुस्तक ‘बिना हासलपाई’ है। मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि डॉ. दइया ने दोनों प्रणालियों से जुड़े इन आठों बिन्दुओं का मनोयोग से पालन किया है। आचार्य शुक्ल और डॉ. द्विवेदी के युग के अस्सी वर्ष बीत जाने के बाद भी हिंदी साहित्य में आलोचना के मानक साहित्य शास्त्र का अब तक विकास नहीं हुआ है फिर राजस्थानी कहानी-आलोचना तो वैसे ही रक्त अल्पता का शिकार है तथा पक्षधरता से अभिशप्त रही है। ऐसे में यदि स्वस्थ व निरपेक्ष दृष्टि की कोई आलोचना पुस्तक सामने आए तो उसका स्वागत किया ही जाना चाहिए।
आलोचना का प्रस्थान बिंदु है साहस। डॉ. दइया ने साहस के साथ कहानी-साहित्य को कथा साहित्य कहने का विरोध किया है क्यों कि कथा शब्द में कहानी व उपन्यास दोनों का समावेश होता है (केवल कहानी का नहीं)। उसे कथा शब्द से संबोधित करना भ्रम पैदा करता है। साथ ही उन्होंने केवल परिवर्तन के नाम पर उपन्यास को नवल कथा कहने की प्रवृति का भी विरोध किया है क्यों कि इस अनावश्यक बदलाव की क्या आवश्यकता है?
व्यक्तियों के नाम से काल निर्धारण करने की प्रवृति को भी वे ठीक नहीं मानते क्योंकि ऐसा करने से आपधापी, निजी पसंद-नापसंद, आपसी पक्षधरता और हासलपाई लगाने के प्रयास आलोचना के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर सकते हैं। डॉ. दइया यह मानकर चलते हैं कि आधुनिक होने का अर्थ समय के यथार्थ से जुड़ना है। ‘बिना हासलपाई’ पुस्तक की एक विशेषता उसकी तार्कितकता और तथ्यात्मकता का है। पच्चीस कहानीकारों में नृसिंह राज्पुरोहित को प्रथम स्थान इसलिए दिया गया क्योंकि उनकी कहानियों में पूर्ववर्ती लोक कथाओं से सर्वथा मुक्ति का भाव है अतः सही मायने में वे ही आधुनिक राजस्थानी कहानी के सूत्रधार माने जा सकते हैं। राजस्थानी कहानी के विकास में कुल जमा साठ वर्ष ही तो हुए हैं। इस अवधि में शुरुआती पीढ़ी से आज तक की नवीनतम पीढ़ी तक चार प्रवृतियां तथा चार पीढ़ियां सामने आती हैं। इसे दृष्टिगत रखते हुए डॉ. दइया ने 15-15 वर्षों के चार कालखण्डों के विभाजन का सुझाव दिया है ताकि चारों पीढ़ियों तथा चारों प्रवृत्तियों के साथ न्याय किया जा सके।
कहानीकारों का चयन संपादक का विशेषाधिकार हुआ करता है। डॉ. दइया ने 25 कहानीकारों की कृतियों को सामने रखकर सारा ताना-बाना बुना है। उसमें ऐसे अनेक कहानीकारों को सम्मिलित नहीं किया गया है जो पक्षधरता या फिर ग्लैमर या कि प्रचार के कारण सभी संकलनों में समाविष्ट होते रहते हैं। पुस्तक में ऐसे स्वनामधन्य, रचनाकारों के विरुद्ध कोई टिप्पणी तो नहीं है पर उनके वर्चस्व के चलते ऐसे उपेक्षित या हल्के-फुल्के ढंग से विवेचित किन्तु उनके समान ही या कहीं-कहीं सृजनात्मक रूप से उनसे भी आगे रहने लायक कुछ कहानीकारों को पूरे सम्मान के साथ जोड़ा गया है। क्या कारण है कि सर्वथा समर्थ और प्रभावशाली कहानीकार भंवरलाल ‘भ्रमर’ के साथ समुचित न्याय नहीं किया गया? क्या कारण है कि प्रथम पीढ़ी के साथ कहानियां लिखने वाले मोहन आलोक को या कन्हैयालाल भाटी को उपेक्षिता रखा गया? चौकड़ी की धमा चौकड़ी के चलते ऐसे कई समर्थ कहानीकार प्रकाश में नहीं आ सके जिनकी कहानियां वर्षों से पत्रिकाओं में छपती रहती थी। चूंकि पुस्तक रूप में उनके संग्रह बाद में सामने आए, क्या यही उपेक्षा का वजनदार कारण बन सकता है? संपादक को तो चौतरफा दृष्टि रखनी चाहिए। पत्रिकाओं के प्रकाशन, गोष्ठियों में कहानी-वाचन, सेमिनारों में कहानियों पर चर्चा आदि पर भी सजग संपादकों द्वारा ध्यान दिया जाना चाहिए। पुस्तक रूप में सामने आने न आने पर क्या गुलेरी जी की कहानियों के अवदान को कम आंका जा सकता है? डॉ. दइया ‘आ रे म्हारा समपमपाट, म्हैं थनै चाटूं थूं म्हनै चाट’ वाली प्रवृति के एकदम खिलाफ हैं।
इस पुस्तक की एक और विशेषता संपादक की अध्ययनशीलता की है। उन्होंने कुल 25 कहानीकारों के 55 कहानी-संग्रहों की 150 से अधिक कहानियों की चर्चा की है और वह भी विषद चर्चा। मुझे तो इससे पूर्ववर्ती संकलनों में ऐसा श्रम साध्य काम को करता हुआ कोई भी आलोचक नहीं मिला। कसावट भी इस पुस्तक एक अद्भुत विशेषता है। पृष्ठ संख्या 31 से पृष्ठ संख्या 160 तक के 130 पृष्ठों में सभी 25 कहानीकारों की कहानियों के गुण-धर्म का विवेचन करना और अनावश्यक विस्तार से बचे रहना कोई कम महत्त्व की बात नहीं है। तीसरी और चौथी पीढ़ी के उपलब्धीमूलक सृजन तथा आगे की संभावनाओं को देखते कुछ ऐसे कहानीकारों को भी शामिल किया गया है जिनको पूर्ववर्ती संकलनों में स्थान नहीं मिला।
डॉ. दइया के पास एक आलोचना दृष्टि है तथा कसावट के साथ बात कहने का हुनर भी है। वे कलावादी आलोचना, मार्क्सवादी आलोचना या भाषाई आलोचना के चक्कर में न पड़ कर किसी कृति का तथ्यों के आधार पर कहाणीकार के समग्र अवदान को रेखांकित करते चलते हैं। ऐसा विमर्श, ऐसा जटिल प्रयास कम से कम सुविधाभोगी संपादक तो कर ही नहीं सकते। रचना के सचा को उजागर करने में हमें निर्मल वर्मा की इस टिप्पणी पर ध्यान देना होगा कि ‘आज जिनके पास शब्द है, उनके पास सच नहीं है और जिनके पास अपने भीषण, असहनीय, अनुभवों का सच है, शब्दों पर उनका कोई अधिकार नहीं है।’ मुझे यह लिखते हुए हर्ष होता है कि डॉ. दइया के पास वांछित शब्द और सच दोनों ही है। डॉ. दइया ने सभी कहानीकारों के प्रति सम्यक दृष्टि रखी है, न तो ठाकुरसुहाती की है और न जानबूझ कर किसी के महत्त्व को कम करने की चेष्टा ही की है। एक और बात- प्रथम और द्वितीय पीढ़ी के कहानीकारों की चर्चा करते समय उसी कालखंड में लिखने वाले अन्य कहानीकारों की कहानियों के संदर्भ भी दिए गए हैं ताकि तुलनात्मक अध्ययन संभव हो सके।
डॉ. दइया ने वरिष्ठ कहानीकारों की कहानियों में जहां कहीं कमियां दर्शाई गई है वहीं इस बात पर भी पूरा ध्यान दिया गया है कि शालीनता व सम्मान में किसी प्रकार की कमी न रहे। संक्षेप में यह आलोचना पुस्तक एक अच्छी प्रमाणिक और उपयोगी संदर्भ पुस्तक है। मैं इसका हृदय से स्वागत करता हूं।
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पुस्तक : बिना हासलपाई ; लेखक : डॉ. नीरज दइया ; प्रकाशक : सर्जना, शिवबाड़ी रोड, बीकानेर ;
संस्करण : 2014 ; पृष्ठ संख्या : 160 ; मूल्य : 240/-
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२
सुकून देती नीरज दइया की कविताएं -विजय शंकर आचार्य
उचटी हुई नींद के बाद/ जब लगती है आंख/ अटकी रहती हो तुम/ भीतर-बाहर/ जैसे नींद में/ जागते हुए।/ नहीं चलता मेरा कोई बस। मैं नहीं जान ही पाया- कब उचटी नींद/ कब लगी आंख!
नींद का उचटना सामान्य आदमी के लिए साधारण घटना हो सकती है। संवेदनशील मन इस नींद के उचटने को बहुत अलग ढंग से समझता है और अभिव्यक्त करता है। उचटी हुई नींद कवि, आलोचक डॉ. नीरज दइया का प्रथम हिंदी काव्य संग्रह है। इस दौर में जब कहा जा रहा है कि कविता का युग समाप्त हो चुका है नीरज की कविताएं कुछ हौसला देती नजर आती हैं। साठ कविताओं के इस संग्रह में अंतिम तीन कविताओं में प्रायोगिक रूप में तीन गद्य कविताओं को भी स्थान दिया है।
नीरज की कविताओं से गुजरते हुए लगता है उनका अपना एक संसार है जो केवल ऐसा सपना भर नहीं जो सिर्फ देख कर भूला जा सके। संग्रह ‘एक सपना’ कविता से प्रारम्भ होता जहां कवि कह देता है- किसी भी उडान के लिए/ एक आंख चाहिए/ और चाहिए, आंख में/ एक सूर्यदर्शी सपना। इस युग में जब चारों ओर सपनों के सौदागर बाजीगरी से सपनों को बेचकर मुनाफाखोर बने हुए हैं। ऐसे में जब सपनों पर पहरे बैठाएं जा रहे हों। ऐसे में जब सपने दिखाकर, सपनों को तोड़ा जा रहा हो तब डॉ. दइया के ‘कुछ सपने और’ आशा जगाते हुए आह्वान करते नजर आते हैं- घुट-घुट कर मरने से बेहतर हैं जिए कुछ देर और... / भूल जाएं सब कुछ, चले कुछ आगे और..../ किसी आकाश का बनकर बादल बरसें कुछ देर और.../ आंसुओं को पोछ कर चुनें जिंदा कुछ सपने और....
किसी भी रचना का पाठ करते हुए यदि पाठक अपनी संवेदनाओं में गमन करते हुए कवि की संवेदनाओं का हमसफर बन जाए तो रचना की सफलता ही कही जा सकती है। इस संग्रह को पढ़ते हुए यदि पाठक के साथ ऐसा होता है कोई अतिश्योक्ति नहिं है। इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए पाठक उनके साथ बतियाने लगता है। वह प्रेम के लोक में विचरण करने लगता है और प्रेममय हो जाता है। खोखली होती जिन्दगी में प्रेम के मरने के इस दौर में जब पाठक अपनी खोखली हंसी के बीच डॉ. दइया की ‘खोखली हंसी’ में प्रवेश करता है उसे अपने अंतस तक पैठे खोखलेपन से दो-चार होना पड़ता है- प्रेम के बिना/ नहीं खिलते फूल/ कुछ भी नहीं खिलता/ ... जो खिलता हुआ उसके पीछे प्रेम है/ जहां नहीं प्रेम/ वहां सुनता हूं- खोखली हंसी।
इस भयावह, क्रूर उठापटक वाले स्वार्थपरक युग में जब प्रेम ‘ढूंढते रह जाओगे’ की सीमा तक आ चुका है। ऐसे जलते उबलते परिवेश में कवि का प्रेम को ढूंढना और उसे बचाए रखने की जद्दोजहद में अपनी नींद को उचटा देना साधारण प्रेम के बूते की बात नहीं है। इन कविताओं को प्रेम कविता कहना शायद इसलिए उचित नहीं होगा क्योंकि बदलते युग में प्रेम के मायने बदल गए हैं। नीरज की कविताओं के प्रेम में जमाने की हवा की स्थूलता नहीं है एक गहराई जिसे जानने के लिए अनुभूति के गहनतम अंतस तक पैठना जरूरी हो जाता है।
आज के इस युग में जब मानवीयता सिर्फ समाचारों की सुर्खियां बटोरने के लिए सप्रयास की जाती है, जब हमारी स्मृतियों को खत्म करने के लिए साजिशें की जा रही हैं। ऐसे में कवि अपनी स्मृति को सहेज कर रखना चाहता है और कह देता है तुम्हारी स्मृति में हैं/ कई गीत/ उन में से चुनकर एक/ गा रही हो तुम/ कहा तुमने/ आवाज पर मत जाना/ स्मृति पर जाना/ क्या गीत के सहारे/ पहुंच सकूंगा मैं/ तुम्हारी स्मृति तक?
सामान्यतः लोग अपने संग्रह का शीर्षक संग्रह में प्रकाशित किसी एक कविता के शीर्षक को रख देते हैं। लेकिन डॉ. नीरज ने यहां एक प्रयोग किया है। उनके कविता संग्रह में ‘उचटी हुई नींद’ नाम की कविता नहीं है। लेकिन कवि का गद्य कविता का प्रयोग कम असरकारक रहा। गद्य कविताएं पहले की कविताओं की तुलना में कम प्रभाव छोड़ती हैं।
कुल मिलाकर नीरज की कविता दैहिक और आलोकिक प्रेम की उस सीमा पर खड़ी है जहां पाठक अपनी अन्तरावस्था से जहां भी पहुंचना चाहे वहां जा सकता है। इन कविताओं की खास बात इनका सीधापन है। इनमें लय है जो पाठक को कविता दर कविता आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। डॉ. नीरज की कहीं कृत्रिमता नजर नहीं आती। आज के इस कृत्रिम युग में कविताएं सुकून देती हैं।
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संयुक्त निदेशक (कार्मिक)
माध्यमिक शिक्षा राजस्थान, बीकानेर
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उचटी हुई नींद (कविता संग्रह) ; कवि - डॉ. नीरज दइया
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर ; संस्करण : 2013 ; पृष्ठ संख्या : 80 ; मूल्य : 60/-
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